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________________ परिणति विरस (दुःखदायी) है ॥९२॥ उदित-कषाया रे, विषय-वशीकृता, यान्ति महानरकेषु । परिवर्तन्ते रे, नियतमनन्तशो, जन्म-जरा-मरणेषु ॥ ९३ ॥ ___ अर्थ :- कषायों के उदय वाले और विषय के वशीभूत हुए प्राणी भयंकर नरक में जाते हैं और निरन्तर जन्म, जरा और मरण के चक्र में अनन्त बार चक्कर लगाते रहते हैं ॥९३॥ मनसा वाचा रे, वपुषा चञ्चला, दुर्जय-दुरित-भरेण । उपलिप्यन्ते रे, तत आस्त्रवजये, यततां कृतमपरेण ॥ ९४ ॥ अर्थ :- मन, वचन और काया की चंचलता से प्राणी दुर्जय पाप के भार से लिप्त हो जाता है, अतः आस्रव-जय के लिए प्रयत्न करो । अन्य सभी प्रयत्न बेकार हैं ॥९४॥ शुद्धा योगा रे, यदपि यतात्मनां, स्त्रवन्ते शुभकर्माणि । काञ्चन-निगडांस्तान्यपि जानीयात्, हत-निर्वृति-शर्माणि। ९५। अर्थ :- यद्यपि संयमी आत्माएँ शुद्ध योगों के द्वारा शुभकर्मों का आस्रव करती हैं, उनको भी स्वर्ण की बेड़ियाँ समझो, क्योंकि वे भी मोक्षसुख में प्रतिबन्धक हैं ॥९५॥ मोदस्वैवं रे, सास्त्रव-पाप्मनां, रोधे धियमाधाय । शान्त-सुधारस-पानमनारतं, विनय विधाय विधाय ॥१६॥ __ अर्थ :- हे विनय ! आस्रव सहित पापात्मा के विरोध में अपनी बुद्धि को लगा और शान्त सुधारस का पान करके आनन्द प्राप्त कर ॥९६॥ शांत-सुधारस
SR No.034149
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages96
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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