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________________ प्रणयविहीने दधदभिष्वङ्ग, सहते बहुसन्तापम् । त्वयि निःप्रणये पुद्गलनिचये, वहसि मुधा ममतातापम् ॥ विनय० ॥ ६८ ॥ अर्थ :- जिसे हमारे प्रति प्रेम नहीं है, उससे प्रेम करने में अनेक सन्ताप सहन करने पड़ते हैं। इन पुद्गलों के समूह को तेरे प्रति कोई प्रेम नहीं है। तू व्यर्थ ही ममता की गर्मी वहन कर रहा है ॥६८॥ त्यज संयोगं नियत-वियोगं, कुरु निर्मल-मवधानम् । नहि विदधानः कथमपि तृप्यसि, मृगतृष्णाघनरसपानम् ॥ विनय० ॥ ६९ ॥ अर्थ :- जिनका अन्त में अवश्य वियोग होने वाला है उन संयोगों का तुम त्याग कर दो और निर्मल भाव धारण करो । मृग-तृष्णा के जल का कितना ही पान किया जाय, उससे कभी तृप्ति होने वाली नहीं है ॥६९॥ भज जिनपतिमसहाय-सहायं, शिवगति-सुगमोपायम् । पिब गदशमनं परिहृतवमनं, शान्तसुधारसमनपायम् ॥ विनय० ॥ ७० ॥ ___ अर्थ :- असहाय की सहायता करने वाले जिनेश्वरदेव को तुम भजो, यही मुक्ति-प्राप्ति का सरल उपाय है । शान्तसुधारस का तू पान कर, जो रोग का शामक है, वमन को दूर करने वाला है और अविनाशी है ॥७०॥ शांत-सुधारस २९
SR No.034149
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages96
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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