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________________ अर्थ :- जिस प्रकार परस्त्री में स्वस्त्री कल्पना बुद्धिमान् पुरुष के लिए आपत्ति का कारण बनती है, उसी प्रकार अन्य वस्तु में अपनेपन की भावना (ममत्वबुद्धि) विविध पीड़ाओं को देने वाली ही होती है ॥४७॥ अधुना परभावसंवृतिं हर,- चेतः परितोऽवगुण्ठितम् । क्षणमात्मविचारचन्दन- द्रुमवातोर्मिरसाः स्पृशन्तुमाम् ॥४८॥ अर्थ :- हे मन! चारों ओर से घिरे हुए पर-भाव रुप आवरण को तू दूर हटा दे, ताकि आत्मचिन्तन रुप चन्दन वृक्ष के पवन की उर्मि के रस का क्षणभर के लिए मुझे स्पर्श हो जाय ॥४८॥ एकतां समतोपेता-मेनामात्मन् विभावय । लभस्व परमानन्द- संपदं नमिराजवत् ॥ ४९ ॥ अनुष्टुप अर्थ :- हे आत्मन् ! समत्व से युक्त एकता का तू भावन कर, जिससे नमि राजर्षि की तरह तुझे परमानन्द की सम्पत्ति प्राप्त होगी ॥४९॥ ॥ चतुर्थ भावनाष्टकम् ॥ विनय चिन्तय वस्तुतत्त्वं, जगति निजमिह कस्य किम् । भवति मतिरिति यस्य हृदये, दुरितमुदयति तस्य किम् ॥ विनय० ॥ ५० ॥ अर्थ :- हे विनय ! तू वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप का चिन्तन कर । इस जगत् में वास्तव में अपना क्या है ? इस शांत-सुधारस
SR No.034149
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages96
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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