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________________ उसकी एक चिन्ता दूर होती है, तो उससे बढ़कर दूसरी नई चिन्ता खड़ी हो जाती है। प्रतिपल विपत्ति के गर्त के आवर्त में पड़ने के स्वभाव वाले इस प्राणी के लिए इस संसार में आपत्ति का अन्त कैसे हो सकता है ? ॥३३॥ सहित्वा सन्तापानशुचिजननीकुक्षिकुहरे, ततो जन्म प्राप्य प्रचुरतरकष्टक्रमहतः।। सुखाभासैर्यावत् स्पृशति कथमप्यर्तिविरतिं, जरा तावत्कायं कवलयति मृत्योः सहचरी ॥३४॥ शिखरिणी अर्थ :- जीव गन्दगी से भरपूर माँ की कुक्षि रुपी गुफा में सन्तापों को सहन कर जन्म प्राप्त करता है और उसके बाद अनेक प्रकार के महान् कष्टों की परम्परा को प्राप्त करता है, किसी प्रकार से सुखाभासों से जब दुःख से विराम पाता है, तब मृत्यु की सहचरी जरावस्था उसके देह को खाने लग जाती है ॥३४॥ विभ्रान्तचित्तो बत बम्भ्रमीति, पक्षीव रुद्धस्तनुपञ्जरेऽङ्गी । नुन्नो नियत्याऽतनुकर्मतन्तु-सन्दानितः सन्निहितान्तकौतुः॥३५ ॥ उपजाति अर्थ :- मोह से मूढ़ चित्त वाला यह प्राणी इधर-उधर भटकता रहता है। नियति से प्रेरित और कर्म के तन्तुओं से बंधा हुआ यह प्राणी शरीर रुपी पिंजरे में पक्षी की भाति पड़ा हुआ है, जिसके निकट में ही कृतान्त (यम) रूपी बिलाड खड़ा है॥३५॥ शांत-सुधारस __१७
SR No.034149
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages96
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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