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________________ शब्दार्थ : पासत्थों के साथ परस्पर बातचीत करने से, अथवा निन्दा विकथादि बातें परस्पर करने से, हंसी-मजाक या मखौल व तानेबाजी करने से पासत्थों के साथ रहने वाला सुविहित साधु धीरे-धीरे किसी बात की बार-बार जोरदार प्रेरणा के कारण एक दिन व्याकुल (व्यग्र) हो उठता है और शुद्ध स्वधर्म-संयममार्ग से भ्रष्ट हो जाता है। इसीलिए पासत्थों का संपर्क त्याज्य ही समझना चाहिए ॥२२४।। लोए वि कुसंसग्गीपियं, जणं दुन्नियच्छमइवसणं । निदइ निरुज्जम, पियकुसीलजणमेव साहुजणो ॥२२५॥ ___ शब्दार्थ : जिसे कुसंगियों का संसर्ग करने का शौक है; जो उद्धत वेषधारी है और जूआ आदि दुर्व्यसनों में ही रातदिन रचा-पचा रहता है; जैसे लोकव्यवहार में ऐसे लोगों की निन्दा होती है; वैसे ही सुविहित साधुजनों में भी ऐसे कुवेषधारी साधु की भी अवश्य निन्दा होती है, जो चारित्र पालन में शिथिल या आलसी है, उसे कुशीलजन ही प्रिय लगते हैं ॥२२५॥ निच्चं संकियभीओ, गम्मो सव्वस्स खलियचारित्तो । साहुजणस्स अवमओ, मओ वि पुण दुग्गइं जाइ ॥२२६॥ शब्दार्थ : मेरा दुष्ट आचरण कोई देख न ले, इस शंका से जो सदा शंकित रहता है; मेरा पाप खुल न जाय, इस दृष्टि से जो सदा भयभीत रहता है; मेरी बुरी प्रवृत्ति का कोई उपदेशमाला
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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