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________________ सव्वगहाणं पभवो, महागहो सव्वदोसपायट्टी । कामग्गहो दुरप्पा, जेणाऽभिभूयं जगं सव्वं ॥२१०॥ शब्दार्थ : सभी ग्रहों का उत्पत्तिस्थान, महान् उन्माद रूप, सभी दोषों का प्रवर्त्तक महाग्रह परस्त्रीगमन-आदि रूप कामग्रह है । काम रूपी महादुरात्मा ग्रह के उत्पन्न होने पर वह चित्त को भ्रम में डाल देता है, इसने सारे जगत् को प्रभावित व पराजित कर रखा है । इसीलिए काम रूपी महाग्रह को छोड़ना अत्यंत कठिन है || २१० ॥ जो सेवइ किं लहइ, थामं हारेइ दुब्बलो होइ । पावेइ वेमणस्सं, दुक्खाणि अ अत्तदोसेणं ॥२११॥ शब्दार्थ : जो पुरुष कामभोगों का सेवन करता है, वह क्या पाता है ? पाता क्या है ? बल्कि खोता है । उसे कभी तृप्ति नहीं होती उसके शरीर का बल क्षीण हो जाता है, वह वीर्यहीन हो जाता है, उसके चित्त में उद्वेग होता है । इसके कारण वैमनस्य भी पनपता है । और स्वच्छंद आचरण (आत्म - दोष) से क्षयरोग, प्रमेह आदि अनेक रोगों के दुःख भी वह पाता है ॥२११॥ जह कच्छुल्लो कच्छु, कंडूयमाणो दुहं मुणइ सोक्खं । मोहाउरा मणुस्सा, तह कामदुहं सुहं बेंति ॥ २१२ ॥ शब्दार्थ : जैसे खुजली के रोग से पीड़ित मनुष्य अपने नखों से उस स्थान को बार-बार खुजलाने में दुःख को सुख उपदेशमाला ७५
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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