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________________ जं णेण जलं पीयं, घम्मायवजगडिएण तं पि इहं।। सव्वेसु वि अगड-तलाय-नई-समुद्देसु न वि होज्जा ॥२००॥ ___ शब्दार्थ : ग्रीष्म-ऋतु की धूप से पीड़ित इस जीव ने इतना जल पिया है कि उसका हिसाब लगायें तो इतना जल सभी कुओं, तालाबों, गंगा आदि सभी नदियों और लवणादि सारे समुद्रों में भी न हो । अर्थात् एक जीव ने आज तक जितना जल पिया है कि वह सर्व-जलाशयों के जल से भी अनंत गुना है ॥२००॥ पीयं थणयच्छीरं, सागरसलिलाओ होज्ज बहुअयरं । संसारम्मि अणते, माऊणं अन्नमन्नाणं ॥२०१॥ ___शब्दार्थ : इस जीव ने इस अनंत संसार में बचपन में भिन्न-भिन्न माताओं के स्तनों का दूध इतना पिया है कि जिसका हिसाब लगाय जाय तो समस्त समुद्रों के जल से भी अनंतगुना दूध हो जाय । मतलब यह है कि एक जीव ने अलग-अलग नये-नये शरीर धारण करके अलग-अलग माताओं का दूध सारे समुद्रों से अनंतगुना पिया है ॥२०१॥ पत्ता य कामभोगा, कालमणतं इहं सउवभोगा । अप्पुव्वं पि व मन्नइ, तहवि य जीवो मणे सुक्खं ॥२०२॥ शब्दार्थ : इस संसार में अनंतकाल तक जीव ने घरस्त्री-वस्त्र-अलंकार आदि उपभोग्य पदार्थों सहित कामभोग उपदेशमाला ७१
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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