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________________ अपरिस्सावी सोमो, संगहसीलो अभिग्गहमई य । अविकत्थणो अचवलो, पसंतहियओ गुरु होइ ॥ ११॥ शब्दार्थ : तथा अप्रतिश्रावी, सौम्य, संग्रहशील, अभिग्रहबुद्धि वाले, मितभाषी, स्थिर स्वभावी और प्रशान्त हृदयवाले गुरु होते हैं ॥११॥ कइयावि जिणवरिंदा, पत्ता अयरामरं पहं दाउं । आयरिएहिं पवयणं, धारिज्जइ संपयं सयलं ॥१२॥ शब्दार्थ : किसी समय जिनवरेन्द्रों ने भव्यजीवों को सन्मार्ग बताकर अजर-अमर स्थान प्राप्त किया था । वर्तमानकाल में आचार्यों ने उनकी समस्त सम्पदा और प्रवचन धारण किये हुए हैं ॥१२॥ अणुगम्मई भगवई, रायसुअज्जा सहस्सविंदेहिं । तहवि न करेइ माणं, परियच्छइ तं तहा नूणं ॥ १३ ॥ शब्दार्थ : श्री भगवती राजपुत्री आर्या चन्दनबाला हजारों साध्वी वृन्दों के सहित होने पर भी अभिमान नहीं करती थीं । क्योंकि वह उसका निश्चय कारण जानती थीं ॥१३॥ दिणदिक्खियस्स दमगस्स, अभिमुहा अज्ज चंदणा अज्जा । नेच्छइ आसणगहणं, सो विणओ सव्वअज्जाणं ॥ १४॥ शब्दार्थ : एक दिन के दीक्षित भिक्षुक साधु के सामने आर्या चन्दनबाला साध्वी खड़ी रही, और उसने आसन उपदेशमाला ६ 15
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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