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________________ साधु संयम पालन में जैसे-जैसे प्रमाद करता है, वैसे-वैसे क्रोधादि कषायों से पीड़ित होता जाता है ॥११७॥ जो निच्छएण गिण्हइ, देहच्चाए वि न य धिइं मुयइ । सो साहेइ सकज्जं, जह चंदवडिंसओ राया ॥ ११८ ॥ शब्दार्थ : जो महानुभाव व्रत - नियमों को स्वेच्छा से दृढ़ निश्चय पूर्वक ग्रहण करता है और देहत्याग तक का कष्ट आ पड़ने पर भी उनके पालन का धैर्य नहीं छोड़ता (अर्थात् स्वीकृत अभिग्रह-संकल्प - पर डटा रहता है), वह अपना कार्य (मुक्ति रूपी साध्य ) सिद्ध कर लेता है । जैसे चन्द्रावतंसक राजा ने प्राणांत कष्ट आ पड़ने पर भी अपना अभिग्रह नहीं छोड़ा ॥ ११८ ॥ वैसे ही अन्य साधकों को करना चाहिए । सीउण्ह - खुप्पिवासं, दुस्सिज्ज -परिसहं किलेसं च । जो सहइ तस्स धम्मो, जो धिइमं सो तवं चरइ ॥ ११९॥ I शब्दार्थ : जो साधु शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा, दुःशय्या आदि परिषहों तथा लोच या धर्मपालन के लिए आने वाले कायकष्टों को समभावपूर्वक सहन करता है, वही वास्तव में साधुधर्म की सम्यग् आराधना कर सकता है । क्योंकि जो धैर्यवान होकर ऐसे कष्टों को तुच्छ समझकर उन्हें सह लेता है, वही तपश्चरण करता है । परंतु कायर होकर घबराकर जो ऐसे समय में मैदान छोड़ देता है, प्रमाद करता है, वह अपने तप - संयम के वास्तविक फल से वंचित रहता है ॥११९॥ उपदेशमाला ३९
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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