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________________ में सीधे पड़ते हैं, उन्हें असंयममार्ग के पथिक जानना चाहिए ॥११२॥ थोवोऽ वि गिहिपसंगो, जइणो सुद्धस्स पंकमावहइ । जह सो वारत्तरिसी, हसिओ पज्जोय - नरवणा ॥११३॥ शब्दार्थ : शुद्ध मुनि को गृहस्थ के थोड़े-से परिचय (संसर्ग) से पाप रूपी कीचड़ लग जाता है । जैसे वरदत्त मुनि की चण्डप्रद्योत राजा ने हंसी उड़ाई थी कि "अजी नैमित्तिकजी ! आपको वंदन करता हूँ" ॥ ११३ ॥ इसीलिए मुनिवर गृहस्थ का जरा भी संसर्ग न करे । सब्भावो वीसंभो, नेहो रइवइयरो य जुवइजणे । सयणघरसंपसारो, तवसीलवयाइं फेडिज्जा ॥११४॥ शब्दार्थ : युवतियों के सामने सद्भावनापूर्वक अपने हृदय की बात कहना, उन पर अत्यंत विश्वास रखना, उनके प्रति स्नेह (मोहजन्यसंसर्ग) रखना, कामकथा करना और उनके सामने अपने स्वजन सम्बंधियों की, अपने घर आदि की बार - बार बातें करना साधु के तप ( उपवासादि), शील (ब्रह्मचर्यादि गुण) तथा महाव्रतों का भंग करती है ॥ ११४ ॥ जोइस - निमित्त - अक्खर - कोउआएस - भूइकम्मेहिं । करणाणुमो - अणाहि अ, साहुस्स तवक्खओ होइ ॥ ११५ ॥ शब्दार्थ : ज्योतिषशास्त्र की बातें बताने, निमित्त - कथन करने, अक्षर (आंक, फीचर, सट्टा या फाटका) बताने से, उपदेशमाला ३७
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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