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________________ दुक्कर - मुद्धोसकरं, अवंतिसुकुमाल - महरिसी - चरियं । अप्पा वि नाम तह, तज्जइत्ति अच्छेरयं एयं ॥ ८८ ॥ शब्दार्थ : अवंतिसुकुमाल मुनि का चरित्र भी अतिदुष्कर है; जिसके सुनने से रोंगटे खड़े हो जाते हैं । उस महात्मा ने अपनी आत्मा को भी इतनी तर्जित की थी कि उसका सम्पूर्ण चरित्र सुनने में आश्चर्यकारक है ॥८८॥ उच्छूढ सरीरघरा, अन्नो जीवो सरीरमन्नंति । धम्मस्स कारणे सुविहिया, सरीरं पि छडुंति ॥ ८९ ॥ शब्दार्थ : सुविहित पुरुष धर्म के लिए शरीर रूपी घर का मोह छोड़ देते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि 'यह जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है ॥८९॥ एग दिवसंपि जीवो, पवज्जमुवागओ अनन्नमणो । जइ वि न पावइ मुक्खं, अवस्स वेमाणिओ होइ ॥ ९० ॥ शब्दार्थ : अनन्यमनस्क होकर यदि कोई व्यक्ति एक दिन भी चारित्र की आराधना करता है तो उसके फलस्वरूप उसे यदि मोक्ष न मिले, तो वैमानिक देवत्व तो अवश्य मिलता है 118011 सीसावेढेण सिरंमि, वेढिए निग्गयाणि अच्छीणि । मेयज्जस्स भगवओ, न य सो मणसा वि परिकुविओ ॥ ९१ ॥ उपदेशमाला २९
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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