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________________ भलीभांति बुद्धि से विचार करके, धर्मयुक्त और सत्य वचन बोलते हैं । प्राणान्त कष्ट आ पड़ने पर भी वे अधर्मयुक्त वचनों का उच्चारण नहीं करते ॥ ८० ॥ सठिं वाससहस्सा, तिसत्तखुत्तोदएण धोएणं । अणुचिण्णं तामलिणा, अन्नाणतवृत्ति अप्पफलो ॥८१॥ शब्दार्थ : तामलितापस ने साठ हजार वर्ष तक छट्ठ (दो उपवास) तप किया । पारणे के दिन वह इक्कीस बार जल से भोजन को धोकर पारणा करता था; परंतु अज्ञानतप होने से वह अल्पफल वाला हुआ ॥८१॥ छज्जीवकायवहगा, हिंसगसत्थाई उवइसंति पुणो । सुबहुँ पि तवकिलेसो, बालतवस्सीण अप्पफलो ॥८२॥ शब्दार्थ : छह जीवनिकाय का वध करने वालों का, हिंसा की प्ररूपणा करने वाले शास्त्रों का उपदेश देने वालों और बाल-तपस्वियों का अतिप्रचुर तपक्लेश भी अल्पफल देने वाला होता है ॥८२॥ परियच्छंति य सव्वं, जहठ्ठियं अवितहं असंदिद्धं । तो जिणवयणविहिन्नू, सहंति बहुअस्स बहुआई ॥८३॥ शब्दार्थ : जो जीव - अजीव आदि सर्व पदार्थों के स्वरूप को यथावस्थित, सत्य और संदेह रहित जानता है; जिनवचन की विधि का जानकार होने से वह अनेक बार बहुत लोगों के दुर्वचन सहन कर लेता है उपदेशमाला ॥८३॥ ||८३ || २७
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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