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________________ ज्ञाता दूसरा साधक उससे ईर्ष्या-डाह-क्यों करता है ? उसे स्वयं कर्मक्षय या कर्मोपशम करके वैसा सर्वांग सुंदर बनने का प्रयत्न करना चाहिए ॥६७॥ । अइसुट्ठिओ त्ति गुणसमुइओ त्ति जो न सहइ जइपसंसं । सो परिहाइ परभवे, जहा महापीढ-पीढरिसी ॥६८॥ __शब्दार्थ : अगर कोई व्यक्ति गुणवान् व्यक्ति की-'यह अपने धर्म में स्थिर है, गुण-समूह से युक्त है,' इस प्रकार की प्रशंसा नहीं सहता तो वह अगले जन्म में हीनत्व (पुरुषवेद से स्त्रीवेद) प्राप्त करता है। जैसे पीठ और महापीठ ऋषि ने असहिष्णु होकर अगले जन्म में स्त्रीत्व प्राप्त किया था ॥६८॥ परपरिवायं गिण्हइ, अट्ठमय-विरल्लणे सया रमइ । डज्झइ य परसिरीए, सकसाओ दुक्खिओ निच्चं ॥६९॥ शब्दार्थ : जो दूसरे जीवों की निंदा करता है, आठों मदों में सदा आसक्त रहता है, और दूसरे की सुख-संपदा देखकर दिल में जलता है, वह जीव कषाययुक्त होकर सदा दुःखी रहता है ॥६९॥ विग्गह-विवाय-रुइणो, कुलगणसंघेण बाहिरकयस्स । नत्थि किर देवलोए वि, देवसमिईसु अवगासो ॥७०॥ शब्दार्थ : कलह और विवाद की रुचि वाले तथा कुल, गण और संघ से बाहर किये हुए जीव को देवलोक की देवसभा में भी अवकाश (प्रवेश) नहीं मिल सकता ॥७०॥ उपदेशमाला २३
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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