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________________ जीवदया हो तो वह मोक्षाभिलाषी संविग्न साधुओं का पक्षपाती बनकर अपनी साधुता को बचा सकता है। क्योंकि तीर्थंकरों ने उस संविग्नपक्ष की यतना बतायी है और उसे साधुवर्ग में प्रामाणिक मानी है ॥५२८॥ किं मूसगाण अत्थेण ? किं वा कागाण कणगमालाए ? । मोहमलखवलिआणं, किं कज्जुवएसमालाए ॥५२९॥ शब्दार्थ : चूहों को धन से क्या मतलब ? अथवा कौओं को सोने की माला से क्या प्रयोजन ? इसी प्रकार मोहमिथ्यात्व आदि कर्मरूपी मल से मलिन बने हुए जीवों को इस 'उपदेशमाला' से क्या लाभ ? अर्थात् गुरुकर्मी जीवों के लिए यह उपदेशमाला किसी भी काम की नहीं है । लघुकर्मी जीवों के लिए ही यह हितकारिणी है ॥५२९॥ चरणकरणालसाणं, अविणयबहुलाण सययऽजोगमिणं । न मणि सयसाहस्सो, आबज्झइ कोच्छभासस्स ॥५३०॥ शब्दार्थ : जो चरण और करण के पालन में आलसी हैं और जिनके जीवन में प्रचुर मात्रा में अविनय भरा हुआ है, उनके लिए भी यह 'उपदेशमाला' सदा अयोग्य है । क्योंकि चाहे लाख रुपये का मणि हो फिर भी वह जैसे कौए के गले में बांधने योग्य नहीं होता, इसी प्रकार इस बहुमूल्य उपदेशरत्नमाला का भी ऐसे अयोग्य के पल्ले बाँधना अनुचित है ॥५३०॥ उपदेशमाला २१०
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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