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________________ जेट्टव्वयपव्वयभर-समुव्वहण-ववसियस्स, अच्चंतं । जुवइजणसंवइयरे, जइत्तणं उभयओ भद्रं ॥६२॥ शब्दार्थ : मेरुपर्वत के समान महाव्रतों के भार को जीवन पर्यन्त निभाने में अत्यंत उद्यमशील मुनि को युवतियों का अतिसम्पर्क उपर्युक्त कथा के अनुसार द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से भ्रष्ट करने का कारण बनता है । इसीलिए मुमुक्षु साधक को स्त्रियों के परिचय से अवश्य बचना चाहिए ॥६२॥ जइ ठाणी जइ मोणी, जइ मुंडी वक्कली तवस्सी वा । पत्थन्तो अ अबंभं, बंभावि न रोयए मज्झं ॥३॥ शब्दार्थ : कोई व्यक्ति चाहे कितना ही कायोत्सर्ग-ध्यानकरता हो, मौन रखता हो, मुंडित हो, (यानी सिर के बालों का लोच करता हो) वृक्षों की छाल के कपड़े पहनता हो, अथवा कठोर तपस्या करता हो, यदि वह मैथुनजन्य विषयसुख की प्रार्थना करता हो तो चाहे वह ब्रह्मा ही क्यों न हो, मुझे वह रुचिकर नहीं लगता विषयसुख में आसक्त व्यक्ति साधु होने का ढोंग करके चाहे जितना शरीर को कष्ट दे, वह सब निष्फल, निष्प्रयोजन है ॥६३॥ तो पढियं तो गुणियं, तो अ मुणियं चेइओ अप्पा । आवडियपेल्लियामंतिओ वि जइ न कुणइ अकज्जं ॥६४॥ शब्दार्थ : वास्तव में वही मनुष्य पढ़ा-लिखा है, वही समझदार है और वही विचारक है, जो दुष्ट दुःशील मनुष्यों उपदेशमाला २१
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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