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________________ के सहारे समुद्र पार करने को उद्यत हो; वह तो डूबेगा ही। इसी प्रकार व्रतों को छोड़कर केवल तप से संसार समुद्र को तैरने का अभिलाषी साधक मूढ़ है। क्योंकि व्रतों से युक्त तप ही गुणकारी होता है ।५०९॥ सुबहुँ पासत्थजणं नाऊणं, जो न होइ मज्झत्थो । न य साहेइ सकज्जं, कागं च करेइ अप्पाणं ॥५१०॥ ___ शब्दार्थ : जो पासत्थजनों की शिथिलता और उनकी हठाग्रही वृत्ति का स्वरूप जानकर भी मध्यस्थ नहीं रहता, उल्टे उसकी जिज्ञासा के बिना ही उसे चलाकर उपदेश देने जाता है, उस सुसाधु को उससे कोई लाभ नहीं होता । बल्कि पासत्थ-साधक उस सुसाधु के साथ झगड़ा करके अपने दोषों को छिपाकर अपने में साधुत्व सिद्ध करने का प्रयास करेगा । अतः पासत्थ साधक को उपदेश देना अपना ही नुकसान करना है । क्योंकि वह अपना मोक्ष रूप कार्य नहीं सिद्ध कर सकता; बल्कि हितकर उपदेश देने वाले के प्रति भी वह कौए की-सी अपनी दोषदृष्टि बना लेता है ॥५१०॥ परिचिंतिऊण निउणं, जइ नियमभरो न तीरए वोढुं । परचित्तरंजणेणं, न वेसमेत्तेण साहारो ॥५११॥ शब्दार्थ : गहराई से निपुणतापूर्वक विचार करते हुए अगर उसे लगे कि वह साधुजीवन के मूलगुण-उत्तरगुणों के भार को उठाने में समर्थ नहीं है, तो सिर्फ दूसरों के मन को उपदेशमाला २०२
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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