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________________ अपने आपको बड़ा विद्वान् समझते हैं, जिन्हें सभी शास्त्रवचनों की जानकारी है, उन्हें कौन उपदेश दे सकता है ? उन्हें वैराग्य तत्त्व का उपदेश देना उसी प्रकार व्यर्थ है, जिस प्रकार देवलोक के स्वरूप को प्रत्यक्ष जानने वाले इन्द्र को देवलोक का स्वरूप समझाना ॥४९०॥ दो चेव जिणवरेहिं, जाईजरामरणविष्पमुक्केहिं । लोगम्मि पहा भणिया, सुस्समण-सुसावगो वा वि ॥४९१॥ शब्दार्थ : इस जगत् में मोक्ष जाने के लिए जन्म, जरा और मृत्यु के भय से सर्वथा मुक्त श्री जिनेश्वरों ने दो ही मार्ग बताये हैं- एक सुश्रमण धर्म, दूसरा सुश्रावक धर्म' ॥४९१॥ भावच्चणमुग्गविहारया य, दव्वच्चणं तु जिणपूया । भावच्चणाया भट्ठो, हविज्ज दव्वच्चणुज्जुत्तो ॥४९२॥ ___शब्दार्थ : साधुजीवन अंगीकार करके उग्र विहार (महाव्रतादि का उत्कृष्टरूप से मन, वचन, काया से सत्यतापूर्वक पालन) करना जिनेश्वर भगवान् की भावपूजा है, और जिनभगवान् के बिम्ब की विविध द्रव्यों से पूजा करना द्रव्यपूजा है। यदि कोई भावार्चना (भावपूजा) से भ्रष्ट हो रहा हो तो उसे श्रावकधर्म अंगीकार करके द्रव्यार्चना में जुड़ जाना चाहिए ॥४९२॥ जो पुण निरच्चणो च्चिअ, सरीरसुहकज्जमित्ततल्लिच्छो । तस्स न य बोहिलाभो, न सुग्गई नेय परलोगो ॥४९३॥ उपदेशमाला १९४
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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