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________________ नादान नौकर के दुर्वचन आदि उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहते हैं; उसी प्रकार सभी संयमी साधुओं को क्षमाशील बनकर सहन करना चाहिए ॥ ५६ ॥ पणमंति य पुव्वयरं, कुलया न नमंति अकुलया पुरिसा । पणओ इह पुव्विं जइ जणस्स जह चक्कवट्टीमुणी ॥५७॥ I शब्दार्थ : कुलीन पुरुष पहले नमस्कार करते हैं, किन्तु अकुलीन पुरुष नहीं । जैसे चक्रवर्ती मुनि बन जाने पर पूर्व दीक्षित मुनियों को नमस्कार करता है । अर्थात् चक्रवर्ती ६ खण्ड की राज्य-ऋद्धि छोड़कर भी गर्वोद्धत नहीं होता; अपितु मुनि बन जाने पर वह पहले अपने से दीक्षा में ज्येष्ठ मुनियों को नमन करता है ॥५७॥ जह चक्कवट्टीसाहू, सामाइय साहूणा निरुवयारं । भणिओ न चेव कुविओ, पणओ बहुयत्तणगुणेणं ॥ ५८ ॥ शब्दार्थ : चक्रवर्ती मुनि जब ज्येष्ठमुनि को सरलता से प्रथम वंदन नहीं करता तो सामान्य साधु उसे कठोर शब्दों या तुच्छ शब्दों से कहे कि " तू अपने से दीक्षापर्याय में बड़े साधु की वंदना क्यों नहीं करता ?" इस पर भी चक्रवर्ती मुनि उस पर जरा भी रोष नहीं करता, न झुंझलाकर जवाब देता है, अपितु तुरंत अपनी भूल सुधारकर बहुमान पूर्वक अपने से ज्ञान - दर्शन - चारित्र गुणों में अधिक ज्येष्ठ मुनि की उपदेशमाला १९
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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