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________________ अतः मायाजाल छोड़कर सरल भाव से शास्त्रोचित प्रवृत्ति करने से ही कल्याण हो सकता है ॥४७४॥ कह कह करेमि कह मा करेमि, कह कह कयं बहुकयं मे । जो हिययसंपसारं, करेइ सो अइकरेइ हियं ॥४७५॥ शब्दार्थ : जो विवेकी साधक हृदय में विचार करता है कि "मैं किस-किस तरह से धर्माचरण करूँ ? किस तरह से न करूँ ?" वही अपना आत्मकल्याण अत्यंत मात्रा में कर सकता है ॥४७५॥ सिढिलो अणायरकओ, अवसवसकओ तह कयावकओ । सययं पमत्तसीलस्स, संजमो केरिसो होज्जा ? ॥४७६॥ शब्दार्थ : जो संयम का आचरण करने में शिथिल रहता है, या संयम का अनादर करता है, कुछ गुरु की पराधीनता से करता है, कुछ अपनी स्वच्छंदता से करता है, कुछ संपूर्ण रूप से आराधना न होने से, कुछ विराधना होने से निरंतर प्रमादशील रहता है; बताओ, ऐसे व्यक्ति का संयम पालन कैसा और क्या रंग ला सकता है ? क्योंकि उसकी आराधना विराधना जैसी होती है। अतः ऐसा व्यक्ति संयम में सफल नहीं होता; उसका चारित्र निस्सार है ॥४७६॥ चंदोव्व कालपक्खे, परिहाय पए-पए पमायपरो । तह उग्घरविघर-निरंगणो, य न य इच्छियं लहइ ॥४७७॥ उपदेशमाला १८७
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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