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________________ आत्महितकारी धर्मानुष्ठान किया होता तो वह इस जगत् में निन्दापात्र न होता । अर्थात्-मिथ्याभिमानवश 'कडेमाणे कडे' इन भगवान् महावीर के सिद्धांतवचनों का उत्थापन करके जमाली जगत् में अति निन्दनीय बना ॥४५९॥ इंदियकसायगारवमएहिं, सययं किलिट्ठपरिणामो । कम्मघणमहाजालं, अणुसमयं बंधई जीवो ॥४६०॥ ___ शब्दार्थ : स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों के विषय, क्रोधादि चार कषाय, रसादि तीन गारव (गर्व), जाति आदि आठ मद रूप प्रमाद के आचरण से अत्यंत मलिन परिणामी बना हुआ संसारी जीव प्रतिक्षण कर्म रूपी बादलों के महाजाल को बांधता रहता है । जैसे बादलों का महाजाल चंद्रमा की चांदनी को ढंक देता है, वैसे ही कर्म रूपी महाजाल आत्मा के ज्ञानादि गुणों को ढंक देता है। अतः कर्मबंध के महाजाल के कारण रूप प्रमादाचरण का त्याग करना चाहिए ॥४६०॥ परपरिवायविसाला, अणेगकंदप्पविसयभोगेहिं । संसारत्था जीवा, अरइविणोअं करितेवं ॥४६१॥ शब्दार्थ : दूसरों की निन्दा करने में आसक्त संसारी जीव अनेक प्रकार के कामोत्तेजक विषय भोगों का सेवन करके दूसरों में अरति (अरुचि) पैदा करके अपना मनोविनोद करता है; यानी दूसरों को दुःखित करके अपनी आत्मा को उपदेशमाला १७९
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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