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________________ कराते हैं न किसी को अहित से रोकते हैं । मतलब यह है कि जैसे राजा मनुष्यों से जबर्दस्ती अपनी हितकारी आज्ञा पलवाता है व अहितकारी मार्ग से रोकता है, वैसे अरिहंत भगवान् नहीं करते ॥ ४४८॥ उवएसं पुण तं दिति, जेण चरिएण कित्तिनिलयाणं । देवाण वि हुंति पहू, किमंग पुण मणुयमित्ताणं ॥ ४४९ ॥ शब्दार्थ : जिनेश्वर भगवान् भव्यजीवों को धर्मोपदेश देते हैं, जिसका आचरण करके वे कीर्ति के स्थान रूप देवों के भी स्वामी (इन्द्र) बनते हैं, फिर मनुष्य मात्र के स्वामी होने में तो आश्चर्य ही क्या ? ॥४४९॥ वरमउडकिरीडधरो, चिचइओ चवलकुंडलाहरणो । सक्को हिओवएसा, एरावणवाहणो, जाओ ॥ ४५० ॥ शब्दार्थ : श्रेष्ठ मुकुटधारी, बाजूबंद आदि आभूषणों से सुशोभित, कानों में दिव्य चमकते हुए चपल कुंडल से विभूषित शक्रेन्द्र श्रीजिनेश्वर भगवान् के हितकर उपदेश के अनुसार आचरण करने से ऐरावत नामक हाथी की सवारी वाला बना । मतलब यह है कि कार्तिक सेठ के भव में इन्द्र ने श्री मुनिसुव्रत स्वामी का उपदेश सुनकर उनके पास दीक्षा ग्रहण की थी; और १२ वर्ष तक संयम की आराधना की । जिसके फलस्वरूप वे सौधर्मेन्द्र बने ॥ ४५०॥ उपदेशमाला १७५
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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