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________________ बहुदोससंकिलिट्ठो, नवरं मइलेइ चंचलसहावो । सुट्ठ वि वायामितो, कायं न करेइ किंचि गुणं ॥४३८॥ शब्दार्थ : राग-द्वेष रूपी अनेक दोषों से भरा हुआ, दुष्टचित्त, चंचल स्वभावी और विषयादि में लुब्ध साधु परिषह आदि सहकर शरीर को अत्यंत कष्ट देता है; अगर उस कायकष्ट से वह कर्मक्षय रूप आत्महित जरा भी नहीं करता; उल्टे, अपनी आत्मा को मलिन बनाता है ॥४३८॥ केसिं चि वरं मरणं, जीवियमन्नेसिं उभयमन्नेसिं । दद्दरदेविच्छाए, अहियं केसिं चि उभयं पि ॥४३९॥ शब्दार्थ : इस जगत् में कई जीवों का मरना ही अच्छा है, कईयों का जीना अच्छा है, कितने ही जीवों का जीना और मरना दोनों अच्छे हैं और कइयों का मरना और जीना दोनों दुःखदायी है । इसका विस्तृत वर्णन निम्नोक्त दर्दुरांकदेव की कथा से जानना ॥४३९॥ केसिंचि य परो लोगो, अन्नेसिं इत्थ होइ इहलोगो । कस्स वि दुन्नवि लोगा, दोऽवि हया कस्सई लोगा ॥४४०॥ शब्दार्थ : कई जीवों का परलोक हितकारी होता है इहलोक नहीं; कईयों का इहलोक हितकारी होता है, परलोक नहीं । किसी पुण्यशाली आत्मा के दोनों ही लोक हितकारी होते हैं और किसी-किसी पापकर्मी जीव के दोनों ही लोक उपदेशमाला १७०
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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