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________________ __ शब्दार्थ : छेदन, भेदन, व्यसन (विपत्ति), आयास, क्लेश, भय, विवाद, मृत्यु, धर्मभ्रष्टता और अरति (जीवन से ऊब जाना) ये सब अनर्थ अर्थ (धन) से होते हैं ॥५०॥ दोससयमूलजालं, पुव्वरिसिविवज्जियं जई वंतं । अत्थं वहसि अणत्थं, कीस अणत्थं तवं चरसि ? ॥५१॥ __ शब्दार्थ : सैकड़ों दोषों का मूल कारण होने से मूर्छाजाल (धनादि के प्रति आसक्तिजाल) रखना पूर्वऋषियों द्वारा वर्जित है। यदि साधु होकर भी वमन किये हुए (स्वयं द्वारा त्यागे हुए) अनर्थकारी धन को रखता है तो फिर वह व्यर्थ ही तपश्चरण क्यों करता है ? ॥५१॥ वह-बंध-मारण-सेहणाओ, काओ परिग्गहे नत्थि ? । तं जइ परिग्गहुच्चिय, जइधम्मे तो नणु पवंचो ! ॥५२॥ ___ शब्दार्थ : क्या परिग्रह के कारण मारपीट, बंधन, प्राणनाश, तिरस्कार आदि नहीं होते ? इसे जानता हुआ भी साधु यदि परिग्रह रखता है तो उसका यतिधर्म प्रपंचमय ही है ॥५२॥ किं आसी नंदिसेणस्स, कुलं जं हरिकुलस्स विउलस्स । आसी पियामहो सच्चरिएण वसुदेवनामुत्ति ॥५३॥ __ शब्दार्थ : "नंदीषेण कौन-सा उत्तम कुल का था ? वह तो दरिद्र ब्राह्मणकुल में जन्मा था; लेकिन उत्कृष्ट धर्माचरण से ही वह (नंदीषेण का जीव) विशाल हरिवंश में यादवकुल उपदेशमाला १७
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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