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________________ तो हयबोही य पच्छा, कयावराहाणुसरिसमियममियं । पुणवि भवोयहिपडिओ, भमइ जरामरणदुग्गंमि ॥४३३॥ शब्दार्थ : सम्यक्त्व- रत्न का नाश करने के बाद वह मुनि जिनाज्ञा भंग रूप अपराध से इस जन्म में तो सम्मान हीन जीवन व्यतीत करने के रूप में प्रत्यक्ष फल प्राप्त करता ही है, बुढ़ापे और मृत्यु का दुःख भी पाता है, मृत्यु के बाद भी अनंतकाल तक संसार समुद्र में परिभ्रमण रूप फल (दु:ख) प्राप्त करता है ||४३३॥ जइयाऽणेणं चत्तं, अप्पाणयं नाणदंसणचरित्तं । तइया तस्स परेसुं, अणुकंपा नत्थि जीवे T ॥४३४॥ शब्दार्थ : जिस अभागे जीव ने अपने आत्महित कारक ज्ञान दर्शन-चारित्र का त्याग कर दिया, समझ लो, उस जीव को दूसरे जीवों पर अनुकंपा नहीं है । जो अपनी आत्मा का हितकर्ता नहीं बनता, वह दूसरों का हितकर्ता कैसे हो सकता है ? अपनी आत्मा पर जिसकी दया हो उसीकी दूसरे जीवों पर दया हो सकती है । अतः आत्मदया ही परदया है || ४३४ || छक्कायरिऊण अस्संजयाण, लिंगावसेसमित्ताणं । बहुअस्संजमपवहो, खारो मयलेइ सुट्ठयरं ॥ ४३५॥ शब्दार्थ : षड्जीवनिकाय की विराधना ( हिंसा) करने वाले षट्काय के शत्रु हैं, वे मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों उपदेशमाला १६८
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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