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________________ शब्दार्थ : पूज्य गुरुदेव ! यदि कोई साधु तप, जप और संयम में स्वयं उद्यम करता है और गच्छ में उसकी प्रेरणा करता है; इतना होते हुए भी वह संयमयुक्त अगीतार्थ साधु अनंतसंसारी कैसे हो जाता है ? उसे अनंतसंसारी क्यों कहा गया ? ॥३९९॥ दव्वं खित्तं कालं, भावं पुरिसपडिसेवणाओ य । न वि जाणइ अग्गीओ, उस्सग्गववाइयं चेव ॥४००॥ शब्दार्थ : हे शिष्य ! स्थानांगादि सूत्रों तथा उत्सर्गअपवाद-व्यवहार-प्रायश्चित्त आदि के निर्णायक छेदसूत्रों का रहस्य अध्ययन न किया हुआ अगीतार्थ साधु द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को सम्यक् प्रकार से नहीं जाना जा सकता; इस मनुष्य ने स्वेच्छा से पापसेवन किया है या परवश से पाप किया है ? इसे भी वह नहीं जान सकता; उत्सर्ग (अर्थात् सामर्थ्य होने पर शास्त्र में कहे अनुसार ही क्रियानुष्ठान करना) और अपवाद (अर्थात् रोगादि कारणों के होने पर यतनापूर्वक अल्पदोष का सेवन करना) इस व्यवहार को भी वह नहीं जानता; तो फिर उस अगीतार्थ की संयमक्रिया या धर्मानुष्ठान कैसे सफल हो सकते हैं ? ॥४००॥ जहट्ठियदव्व न याणइ, सच्चित्ताचित्तमीसियं चेव । कप्पाकप्पं च तहा, जुग्गं वा जस्स जं होइ ॥४०१॥ उपदेशमाला १५३
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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