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________________ चारित्र का आराधक कहलाता है । इन गुणों में से जिसमें जितने-जितने अधिक-अधिक गुण होते हैं, वह मुनि उतनाउतना अधिकाधिक आराधक होता जाता है ॥३८८॥ निम्मम-निरहंकारा, उवउत्ता नाणदंसणचरित्ते । एगक्खित्ते वि ठिया, खर्विति पोराणयं कम्मं ॥३८९॥ शब्दार्थ : ममता से रहित, अहंकार रहित, अवबोध रूप ज्ञान में, तत्त्वश्रद्धान रूप दर्शन में और आश्रव का निरोधसंवर ग्रहण-रूप चारित्र में सावधान (उपयोगयुक्त महान् आत्मा) साधु एक क्षेत्र में रहते हुए भी पूर्वजन्म में संचित किये हुए ज्ञानावरणीय आदि पुराने कर्मों का क्षय करते हैं ॥३८९॥ जिय-कोह-माण-माया, जिय-लोभपरीसहा य जे धीरा । वुड्डावासे वि ठिया, खवंति चिरसंचियं कम्मं ॥३९०॥ शब्दार्थ : जो क्रोध-मान और माया को जीत चुके हैं, जो लोभ संज्ञा से रहित हैं और जिन्होंने क्षुधा-पिपासा आदि बाईस परिषहों को जीत लिया है; ऐसे धीर और आत्मबली साधु वृद्धावस्था में एक स्थान पर रहते हुए भी चिरकाल के संचित ज्ञानावरणादि कर्मों को नष्ट कर डालते हैं। श्रीजिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा है कि सदाचारी मुनि किसी विशेष कारण को लेकर एक स्थान पर भी निवास कर सकते हैं ॥३९०॥ पंचसमिया तिगुत्ता, उज्जुत्ता संजमे तवे चरणे । वाससयं पि वसंता, मुणिणो आराहगा भणिया ॥३९१॥ उपदेशमाला १४८
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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