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________________ शब्दार्थ : विनयी बाह्य-आभ्यंतर लक्ष्मी को प्राप्त करता है, विनयवान पुरुष जगत में यश और कीर्ति पाता है। परंतु विनयरहित-दुर्विनित पुरुष अपने कार्य में कभी सिद्धि (सफलता) प्राप्त नहीं कर सकता । यह जानकर सर्व गुणों के वशीकरण विनयगुण की आराधना अवश्य करनी चाहिए ॥३४२॥ जह जह खमइ सरीरं, धुवजोगा जह जहा न हायति । कम्मक्खओ य विउलो, विवित्तया इंदियदमो य ॥३४३॥ शब्दार्थ : जितना-जितना शरीर सहन कर सके; शरीर का बल क्षीण न हो और प्रतिलेखना, प्रतिक्रमण आदि नित्यनियम सुखपूर्वक हो सके, उतना-उतना इच्छा-निरोधयुक्त तप करना चाहिए । 'ऐसा तप करने से विपुल कर्मों का क्षय होता है । यह आत्मा शरीर से भिन्न है तथा यह शरीर आत्मा से भिन्न है; ऐसी आध्यात्मिक भावना जागृत होने से इन्द्रियों का भी दमन अनायास हो जाता है ॥३४३॥ जइ ता असक्कणिज्जं, न तरसि काऊण तो इमं कीस । अप्पायत्तं न कुणसि, संजम-जइणं जईजोग्गं ? ॥३४४॥ शब्दार्थ : हे शिष्य ! यदि तू साधुप्रतिमा, तपस्या आदि क्रिया करने में अशक्त है तो इस आत्मा के अधीन साधुयोग्य संयम, यतना और पूर्वकथित क्रोधादि को वश करने १. सो हु तवो कायव्वो, जेण मणोऽमंगुलं न चिंतेइ । जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न सीयंति ॥ उपदेशमाला १२९
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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