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________________ इंद्रियों को अहितकर मार्ग कार्य में लगाने पर निन्दा होती है और दीर्धकाल तक संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है; जब कि अहितमार्ग से रोककर प्रयत्नपूर्वक हितकर कार्य में लगाने पर यश-कीर्ति बढ़ती है और संसार के बंधनों से मुक्त होकर आत्मा अविनाशीपद प्राप्त करती है ॥३२९॥ जाइ-कुल-रूव-बल-सुय-तव-लाभिस्सरिय-अट्ठमयमत्तो। एयाई चिय बंधइ, असुहाई बहुँ च संसारे ॥३३०॥ शब्दार्थ : ब्राह्मण आदि जातियों का मद, कुल-वंश (खानदान) का अभिमान, शरीरबल का घमंड, रूप-सौभाग्य आदि का गर्व, शास्त्रज्ञान का मद, तपस्या का गर्व, द्रव्यादि प्राप्त होने का अभिमान और ऐश्वर्य-सम्पन्नता का अहंकार; इन ८ मदों में जो मतवाला हो जाता है, वह अवश्य ही संसार में अनेक बार अशुभजाति आदि का संबंध करके उसके फलस्वरूप नीचजाति (गोत्र), नीचकुल, अल्पबल, खराब रूप, अल्पज्ञान, तप करने में दुर्बलता, अल्पलाभ, दरिद्रता आदि प्राप्त करता है ॥३३०॥ जाईए उत्तमाए, कुले पहाणंमि रूपमिस्सरियं । बलविज्जाय तवेण य, लाभमएणं व जो खिंसे ॥३३१॥ संसारमणवयग्गं, नीयद्वाणाई पावमाणो उ । भमइ अणंतं कालं, तम्हाउ मए विवज्जिज्जा ॥३३२॥ उपदेशमाला १२४
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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