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________________ बोझिल बना हुआ साधु अपने शरीर को जरा भी कष्ट नहीं देता । इसे ही सातागौरव समझना ॥ ३२६ ॥ तवकुलच्छायाभंसो, पंडिच्चप्फंसणा अणिट्टप । वसणाणि रणमुहाणि य, इंदियवसगा अणुहवंति ॥ ३२७॥ शब्दार्थ : इन्द्रियों का गुलाम बना हुआ जीव, बारह प्रकार के तप, कुल और अपनी प्रतिष्ठा का विनाश करता है; ऐसा विषयासक्त जीव अपने पांडित्य को मलिन कर देता है । उसके अनिष्टपथ अर्थात् दीर्घ- संसारमार्ग की वृद्धि होती है; उन्हें अनेक प्रकार के आफतों, कष्टों यहाँ तक कि मृत्यु वगैरह कष्ट तक का सामना करना पड़ता है; किसी समय युद्ध के मोर्चे पर भी जाना पड़ता है । इन्द्रियों के दासों को ये सब दुःखद अनुभव होते हैं ॥ ३२७॥ सद्देसु न रंजिज्जा, रूवं दठ्ठे पुणो न बिक्खिज्जा । गंधे रसे अ फासे, अमुच्छिओ उज्जमिज्ज मुणी ॥३२८॥ शब्दार्थ : संयमधारी साधु, चंदन, इत्र आदि सुगंधित द्रव्यों में, मिष्टान्न या शक्कर आदि मीठे तथा चटपटे, तीखे, खट्टे रसयुक्त पदार्थों के स्वाद में, सुकोमल शय्या आदि के स्पर्श में, वीणा, मृदंगादि की ध्वनि में तथा स्त्री के संगीत के शब्दों में आसक्त न हो तथा मनोहर स्त्री तथा उनके अंगोपांगों का सौंदर्य देखकर बार-बार मोह - रागबुद्धि से उपदेशमाला १२२
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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