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________________ अट्टट्टहासकेलीकिलत्तणं, हासखिड्ड - जमगरुई । कंदप्पं उवहसणं, परस्स न करंति अणगारा ॥ ३९६ ॥ शब्दार्थ : घरबार के त्यागी अनगार (साधु) दूसरे लोगों के साथ, दिल खोलकर खिलखिलाकर हंसना, दूसरे के साथ क्रीड़ा करना और किलकारी मारना, (असंबद्ध वचन बोलना ), हंसीमजाक में दूसरे के अंग को बार-बार स्पर्श करना, कामोत्तेजक विनोद करना, एक दूसरे के साथ हाथ से ताली पीटना, दूसरे को हंसाना, उपहास ( मखौल) करना, मजाकदिल्लगी करना; इत्यादि अनर्थों से दूर रहते हैं । वे जानते हैं कि हंस-हंसकर बांधे हुए कर्म रो-रोकर भी नहीं छूटते ||३१६ ॥ साहूणं अप्परुई, ससरीरपलोयणा तवे अरई । सुत्थियवन्नो अइपहरिसो य नत्थि सुसाहूणं ॥३१७॥ I शब्दार्थ : साधु आत्मरुचि अर्थात् मुझे ठंड, गर्मी आदि न लग जाय, इस दृष्टि से शरीर के प्रति ममता रखना, मेरा शरीर कितना सुंदर है ? यह सोचकर बार- बार आइने में देखना, मेरा शरीर कमजोर हो जायेगा, ऐसा विचार कर तपस्या में अरुचि दिखाना, मैं बहुत सुंदर हूँ, मेरा रंग रूप कितना अच्छा है ? इस तरह अपनी प्रशंसा करना और स्वस्थ सुडौल शरीर मिलने या होने पर अत्यंत हर्षित होना, इत्यादि में उत्तम साधु रति (मोह) नहीं करते ॥३१७॥ उव्वेवओ य अरणामओ य, अरमंतिया य अरई य । कलमलओ अ अणेगग्गया य, कत्तो सुविहियाणं ? ॥३१८॥ उपदेशमाला ११७
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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