SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चारगनिरोह-वह-बंध-रोग-धणहरण-मरण-वसणाई । मणसंतावो अजसो, विग्गोवणया य माणुस्से ॥२८३॥ शब्दार्थ : और मनुष्य-जन्म में किसी भी अपराध के कारण कारागृह में बंद होना, लकड़ी आदि से मारपीट, रस्सी, साकल आदि से बंधन, वात, पित्त और कफ से उत्पन्न रोग, धन का हरण, मरण, आफत, मानसिक उद्वेग, अपकीर्ति और अन्य भी बहुत प्रकार की विडंबनाएँ दुःख के कारण हैं । मनुष्य-लोक में भी सुख कहाँ है ? ॥२८३॥ चिंतासंतावेहि य, दारिद्दरुयाहिं दुप्पउत्ताहिं । लभ्रूण वि माणुस्सं, मरंति केई सुनिविण्णा ॥२८४॥ ___शब्दार्थ : मनुष्य-जन्म पाकर भी कई लोगों को कुटुंबपरिवार के भरण-पोषण आदि की चिन्ता सताती रहती है, चोर, डाकू लुटेरे आदि का रात-दिन डर रहता है; पूर्वजन्म में किये हुए दुष्कर्मो के फलस्वरूप गरीबी होती है, क्षयादि रोग के कारण अत्यंत दुःखित होना पड़ता है और अंत में मृत्यु का दुःख भी महाभयंकर है । इसीलिए चिन्तायुक्त मनुष्य-जन्म निष्फल है ॥२८४॥ अतः अमूल्य मनुष्य-जन्म प्राप्त कर धर्मकार्य में पुरुषार्थ करना चाहिए । देवा वि देवलोए, दिव्वाभरणाणुरंजियसरीरा । जं परिवडंति तत्तो, तं दुक्खं दारुणं तेसिं ॥२८५॥ शब्दार्थ : देवलोक में दिव्य-अलंकारों से सुशोभित उपदेशमाला १०४
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy