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________________ सामग्री है, ऐसी मनुष्यलोक में कहाँ से हो सकती है ? ' इसीलिए धर्मकार्य में उद्यम करना चाहिए, ताकि ऐसा सुख प्राप्त हो सके । यही इस गाथा का तात्पर्य है ॥२७७॥ देवाण देवलोए, जं सोक्खं तं नरो सुभणिओ वि । न भइ वाससएण वि, जस्सऽवि जीहासयं होज्जा ॥ २७८ ॥ शब्दार्थ : यदि किसी मनुष्य की सौ जिह्वाएँ हों, बोलने में भी निपुण हो और सौ वर्षों तक भी देवलोक में देवताओं के सुख का वर्णन करे, तो भी वह उस सुख का वर्णन नहीं कर सकता । ऐसे दिव्यसुखों में देवता मग्न रहते हैं । उसका वर्णन साधारण मनुष्य नहीं कर सकता ॥ २७८॥ नरएस जाई अइकक्खडाइं, दुक्खाइं परमतिक्खाइं । को वण्णेही ताइं ? जीवंतो वास कोडीऽवि ॥ २७९ ॥ शब्दार्थ : नरक-गति में जो अत्यंत दुःसह्य और विपाक की वेदना से अत्यंत तीक्ष्ण क्षुधा, तृषा, परवशता आदि दुःख हैं, उन दुःखों का करोड़ों वर्षों तक भी जिंदा रहकर मनुष्य वर्णन करे, फिर भी वर्णन करने में समर्थ नहीं होता || २७९ ॥ कक्खडदाहं सामलि-असिवण- वेयरणि-पहरणसएहिं । जा जायणाओ पावंति, नारया तं अहम्मफलं ॥ २८० ॥ शब्दार्थ : 'नरक के जीवों को अत्यंत तेज जलती आग में डालकर पकाया जाता है, सेमर के पेड़ के तीखे पत्तों से उनका अंगछेदन होता है, तलवार की नोक जैसे तीखे दुःखदायी पत्ते वाले उपदेशमाला १०२
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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