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________________ भावार्थ : जिनके मन, वचन व काया द्वारा स्थिरता एकाकार हो गई है, ऐसे योगी गाँव हो या जंगल, रात्रि हो या दिन, समभाव में ही रहते हैं ॥५॥ स्थैर्यरत्नप्रदीपश्चेद्, दीप्रः सङ्कल्पदीपजैः । तद्विकल्पैरलं धूमैरलं धूमैस्तथाश्रवैः ॥ ६ ॥ भावार्थ : यदि स्थिरतारूप रत्न - दीपक प्रज्ज्वलित हो रहा है, तो संकल्परूप दीप से प्रगट होते विकल्प रूप धुएँ का व अतिमलिन पापों से (आश्रव) क्या ? (अर्थात् वहाँ पाप व विकल्प नहीं हो सकते) ॥६॥ उदीरयिष्यसि स्वान्तादस्थैर्यं पवनं यदि । समाधेर्धर्ममेघस्य घटां विघटयिष्यसि ॥ ७ ॥ भावार्थ : यदि अस्थिरतारूप पवन अन्त:करण में प्रगट करेगा तो समाधि रूप धर्म बादल की घटाएँ बिखर जाएँगी ॥७॥ चारित्रं स्थिरतारूप, मतः सिद्धेष्वपीष्यते । यतन्तां यतयोऽवश्यमस्या एव प्रसिद्धये ॥ ८ ॥ भावार्थ : चारित्र स्थिरता रूप है, इस कारण सिद्धों में भी चारित्र माना गया है । अत: इस स्थिरता की सम्पूर्ण सिद्धि के लिये अवश्य पुरुषार्थ करो ॥८॥
SR No.034146
Book TitleGyansara Ashtak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages80
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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