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________________ ज्ञानमग्नस्य यच्छर्म, तद् वक्तुं नैव शक्यते । नोपमेयं प्रियाश्लेषै र्नापि तच्चन्दनद्रवैः ॥ ६ ॥ भावार्थ : ज्ञान में मग्न आत्माओं के आनंद का वर्णन कदापि शक्य नहीं है । स्त्री सुख अथवा चन्दन विलेपन से प्राप्त सुख के साथ भी उस सुख की तुलना संभव नहीं है || ६ || शमशैत्यपुषो यस्य, विप्रुषोऽपि महाकथा । किं स्तुमो ज्ञानपीयूषे तत्र सर्वाङ्गमग्नताम् ? ॥ ७ ॥ भावार्थ : उपशम की शीतलता को पुष्ट करने वाली ज्ञान-मग्नता के आनंद के एक बिंदुमात्र की भी कथा महान् है । तो उस ज्ञानानंद रूप अमृत से सम्पूर्ण मग्न आत्माओं के आनंद की क्या प्रशंसा करू ? ॥७॥ I यस्य दृष्टिः कृपावृष्टिर्गिरः शमसुधाकिरः । तस्मै नमः शुभज्ञान ध्यानमग्नाय योगिने ॥ ८ ॥ भावार्थ : जिनकी दृष्टि करुणा की वृष्टि करती है । जिनकी वाणी उपशम रूप अमृत का छिड़काव करती है। उन सम्यक् ज्ञान तथा ध्यान में मग्न योगियों को नमस्कार हो ॥८॥ स्थिरताष्टकम्-3 वत्स ! किं चञ्चलस्वान्तो, भ्रान्त्वा भ्रान्त्वाविषीदसि । निधिं स्वसन्निधावेव स्थिरता दर्शयिष्यति ॥ १ ॥ ७
SR No.034146
Book TitleGyansara Ashtak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages80
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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