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________________ है, वैसे जगत भी सत्य नहीं है। अज्ञानी की दशा बालक जैसी है। जो झूठ है, उसे वह सत्य समजता है,अतः वह क्लेश एवं संक्लेशों से पीडित होता है...चिन्ता व भय से दुःखी होता है । दौड़ता है और घुट घुट कर रोता है। उपनिषद् के महर्षि एक माँ की भाँति उसे कहते है, "वत्स! तूं रो मत, यह सब झूठ होता है। जो झूठ है, उसे लँने सत्य समज़ लिया है, यही तेरे दुःखमय संसार का मूल है ।" इस पार्श्वभूमि पर स्पष्ट हो रहा है आत्मोपनिषद् सत्यत्वेन जगद्भानं संसारस्य प्रवर्तकम् पुत्रमृत्यु का आघात वज्राघात बने, उसके मूल में अकस्मात् नहीं होता, पर नाटक के पात्र की तरह जो व्यक्ति हमारे जीवन में अल्पकाल के लिये आया है, उसके संबंध को शाश्वत सत्य समज लेने की भूल होती है । दुःख आता है कर्म से, कर्मबन्ध होता है राग-द्वेष से, और राग-द्वेष का मूल यही है - सत्यत्वेन जगद्भानम् - जगत को सत्य समजने की भूल...अस्थिर को स्थिर समजने की भूल । जापान की एक कहावत है - Don't carve on ice or paint on water. बर्फ के उपर शिल्पकाम या पानी के उपर चित्रकाम मत करों । फ्लोरा फाउन्टेन के ट्राफिक और भीड़ के बीच कोई चिंटी मिट्टी का कण कण लेकर रोड के बीचोबीच अपना घर बनाने का प्रयास करे, ऐसी अज्ञ जीवों की चेष्टा है । उस चींटी की घर बनाने की चेष्टा, चोपाटी की रेत में किसी बच्चे की घर बनाने की चेष्टा और किसी बिझनेशमेन की आलिशान बंगला बनाने की चेष्टा....ज्ञानी की दृष्टि में यह तीनों चेष्टायें एक समान है योगदृष्टिसमुच्चय में कहा है - बालधूलिगृहक्रीडा-तुल्याऽस्यां भाति सर्वदा । तमोग्रन्थिविभेदेन, भवचेष्टाऽखिलैव हि ॥ जब आत्मा को स्थिरा दृष्टि प्राप्त होती है, तब उसकी अज्ञान ग्रंथि कट जाती है, फिर संसार की सारी चेष्टायें उसे ऐसी लगती है, मानों एक बच्चा धूल में घर बना रहा हो । बच्चे को मोह है, ममत्व है, आनंद का आभास है, 'घर बन गया'-ऐसा हर्ष भी है, किन्तु समज़दार की दृष्टि में उसका क्या मूल्य ? पवन की लहरी या किसी बेध्यान आदमी की लात उस घर को एक ही पल में नष्ट-भ्रष्ट कर देते है, और फिर वह बच्चा जोर जोर से रोता है। नश्वर के प्रति मोह का परिणाम अश्रु ही होता है।
SR No.034125
Book TitleArsh Vishva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyam
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages151
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size1 MB
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