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________________ की प्रक्रिया की कल्पना क्यों न की जाये ? कल्पना आखिर कल्पना ही रहती है। प्राचीनतम बौद्ध साहित्य में उल्लेख है कि 'भगवान महावीरस्वामी सर्वज्ञ है' - इस बात का गौतम बुद्ध ने भी स्वीकार किया था। आज अनेक विज्ञानी इसी स्वीकार की दिशा में प्रगति कर रहे है। खास ध्यान खिचनेवाली बात तो यह है कि लेखक ने स्वयं-या तो ...हैं या...है - ऐसा कहकर जैन धर्म की मान्यता के विषय में अपने अज्ञान का स्वीकार किया है और केवल दो कल्पनायें की है, जिनमें से किसे सच समजा जायें, वह छात्रों की समस्या बनी रहती है, तो ऐसी शिक्षा से उनको क्या लाभ होगा? सारे विश्व में हजारों-लाखों विद्यार्थी गहन जैन तत्त्वज्ञान की प्राप्ति कर रहे है, व सृष्टि के सत्यों का ज्ञान पा रहे है, तब हमारे छात्रों को उस महान तत्त्वज्ञान से वंचित रखकर ऐसी सांशयिक शिक्षा देकर हम क्यां साबित करना चाहते है? लेखकश्री के प्रति हमारा कोई विरोध नहीं है। उन्हें भारत के विषय में जो जानकारी थी, वह अपने जैल-वास के दौरान उन्होंने अक्षरांकित की । मुझे पूरा विश्वास है कि यदि यह प्रयास उन्होंने एक पाठ्यपुस्तक के लिये किया होता तो उन्होंने अन्य विषयों के सहित जैन शास्त्रो का गहन अध्ययन करके उसके विषय में लिखा होता । किन्तु उन्होंने सहज भाव से इस कृति की रचना की, न कि पाठ्यपुस्तक की। अब यदि पाठ्यपुस्तक मंडल इस कृति को पाठ्यपुस्तक बनाना चाहता है, तो उस का दायित्व बनता है कि इस पुस्तक में प्रतिपादित सर्व विषयों के लिये पर्याप्त शोध की जाये । इसके लिये प्रत्येक विषयों के निष्णातों की राय ली जाये । * जैन धर्म के संस्थापक महावीर (पृ० ३७) चिंतन - जिसने जैन धर्म के विषय में थोडा भी अध्ययन किया हो वह ऐसे शब्द कह ही नही सकता । जैन धर्म में एक विराट कालमान का प्रतिपादन किया गया है, जिसे उत्सपिणी व अवसपिणी कहते है। इस प्रत्येक काल में २४ तीर्थंकर होते है । भगवान श्रीमहावीरस्वामी २४ वे तीर्थंकर थे । अनादि काल में ऐसे अनंत २४ तीर्थंकर हो चूके । इस काल के प्रथम तीर्थंकर श्रीऋषभदेव थे, जिनका ऋग्वेद व पुराणो में गौरवपूर्ण उल्लेख उपलब्ध होता है। इस तरह जैन धर्म शाश्वत है, एवं अनादि काल से प्रवाहित है, प्रत्येक तीर्थंकर इस धर्म का उपदेश देते है, किन्तु उन्हें इस धर्म के संस्थापक नहीं कह सकते । * जैन धर्म, जो अपने मूल धर्म के विरोध में खडा हुआ था । (पृ० ३९) चिंतन - उपरोक्त प्रतिपादन का एक भी शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है। जब कि जैनधर्म की शाश्वतता व मौलिकता के अनेक प्रमाण प्रस्तुत हो चूके है।
SR No.034125
Book TitleArsh Vishva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyam
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages151
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size1 MB
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