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________________ कर सकते, यतः उन की वंशपरम्परा स्वरूप परिणाम को हम देख सकते है। आत्मा, पुण्य, पाप, परलोक, आदि भी हमें प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देते, तथापि हम उनका इन्कार नही कर सकते, यतः पूर्वजन्म कृत सुकृत-दुष्कृत के परिणाम स्वरूप संसार के सुख-दुःख को हम देख सकते है । पूर्वजन्म की स्मृति की प्रामाणिक घटनायें नियमित बनती रहती है, वार्तापत्रों में छपती रहती है व विज्ञानीओं का समर्थन भी पाती रहती है। अनेक सुशिक्षितोने कडी परीक्षा के बाद इन घटनाओं का और साथ ही साथ आत्मा, परलोक आदि तत्त्वो का भी स्वीकार किया है, जो एक दृष्टि से भौतिकवादने किया हुआ आस्तिकता का स्वीकार है। क्यां हम छात्रों को इन नये आयामों की शिक्षा से वंचित रखेंगे? ★ विवेकपूर्ण चेतना लुप्त होती गई और अतीत की अन्धी मूर्तिपूजा ने उसकी जगह ले ली। (पृ० ८) चिंतन : ऐसी बाते सुनने पर अच्छी व अलंकारिक लगती है। इस बात का अर्थ यह हो सकता है कि मूर्तिपूजा में जिनकी आस्था है, वे अन्धे व अविवेकी है। अब जरा सोचो । बचपन में जिसने अपनी माँ को गवा दिया है, वह मानव सारी जिन्दगी तक अपनी माता का फोटो अपने पास रखता है, उसे देखता है, उस में जीवन्त माता की अनुभूति करता है, उस से वह प्रेम व वात्सल्य की प्राप्ति करता है, जो दूसरी कोई महिला उसे नहीं दे सकती । फोटो भले ही उस की जीवन्त माता नहीं है, तथापि यदि वह उस से प्रेम, वात्सल्य व जीवन की ऊर्जा प्राप्त करता है, तो क्या हमे उसे अन्धा या अविवेकी कहेंगे ? यदि वह युवान अपनी माता की प्रतिमा बनाकर उसका सम्मान करे, तो क्यां वह कुछ गलत कर रहा है ? वास्तव में फोटो या मूर्ति परोक्ष व्यक्ति का भावसान्निध्य प्राप्त करने के लिये एक अनुभवसिद्ध आलम्बन है, जिसे एक या दूसरे प्रकार से प्रायः सारी दुनिया ने अपनाया है। तो यदि इस आलम्बन का उपयोग कोई अपने आदरणीय महापुरुष से पवित्र गुणों की ऊर्जा व आध्यात्मिक आनन्द को प्राप्त करने के लिये करें, तो क्यां वह अविवेक या अन्धता हो सकती यदि सर्वेक्षण किया जायें, और विश्व के अधमतम अपराधीओं का इन्टरव्यू लिया जाये, तो ज्ञात होगा, कि उनमें से एक भी मूर्तिपूजक नहीं होगा । जिन्होंने परमात्मा की परम पावन ऊर्जा को प्राप्त किया हो, जिन्हों ने मूर्तिपूजा के माध्यम से विवेक व दिव्यदृष्टि की प्राप्ति की हो, वे भला अधम कृत्य कैसे कर सकते है ? * जैनधर्म और बौद्ध धर्म दोनों वैदिक धर्म से कटकर अलग हुए थे। और उनकी शाखाएँ थे । (पृ० ५७) चिंतन : विश्व के मूर्धन्य विद्वानों ने जैन, वैदिक, आदि अनेक शास्त्रों व अन्य प्रमाणों का निरीक्षण करके एकमत से इस बात का स्वीकार किया है, कि जैन धर्म पूर्णतया स्वतंत्र व मौलिक धर्म है। वह किसी अन्य धर्म की शाखा नहीं है। वेदों एवं पुराणों में जैन तीर्थंकरों
SR No.034125
Book TitleArsh Vishva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyam
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages151
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size1 MB
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