SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥ श्लोकसौन्दर्यम् ॥ परस्वत्वपरिज्ञान-मेतन्मात्रैव संसृतिः । स्वस्वत्वदृढविज्ञान-मेतन्मात्रैव निर्वृतिः ॥ शरीर, संपत्ति, घर आदि को अपना समज़ना, यही बन्धन है। आत्मगुणों को ही अपना समजना, यही मुक्ति है। શરીર, સંપત્તિ, ઘર વગેરેને પોતાનું સમજવું, એ જ બંધન છે. આત્મગુણોને જ પોતાના સમજવા, એ જ મુક્તિ છે. परत्र स्वत्वविज्ञानं, सर्वद्वन्द्वनिबन्धनम् । तदेतन्मरणं साक्षा-देतदेव हि बन्धनम् ॥ __जो 'मेरा' नहीं, उसे 'मेरा' समजना, यही सर्व दुःखो का हेतु है, मृत्यु भी यही है, और बन्धन भी यही है । 'भा' नथी, मेने 'भाई' समj, ॥ ४ सर्व दु:मोनुं भूण छ. मृत्यु ५९ આ જ છે, અને બંધન પણ આ જ છે. __स्वभावपूर्णतायां तद्, यतितव्यं प्रयत्नतः । अस्यां सिद्धिमुपेतायां, साधनीयं न शिष्यते ॥ आत्मा के शुद्ध स्वभाव की पूर्णता को प्राप्त करने के लिये दृढ प्रयत्न करना चाहिये, यह एक ऐसी सिद्धि है, जिसे प्राप्त करने पर और कुछ भी साध्य नहीं रहता। આત્માની શુદ્ધ સ્વભાવની પૂર્ણતાને પામવા માટે દઢ પ્રયત્ન કરવો જોઈએ, આ એક એવી સિદ્ધિ છે, જેની પ્રાપ્તિ પછી બીજું કાંઈ જ સાધવાનું બાકી રહેતું નથી. ग्रन्थ - सम्पूर्णोपनिषद् (ज्ञानसार - पूर्णाष्टक पर श्लोकवार्तिक) ग्रन्थकार एवं अनुवादकार - आचार्य कल्याणबोधि ११५
SR No.034125
Book TitleArsh Vishva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyam
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages151
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy