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________________ संयमप्राप्ति के लिये शास्त्रीय मार्गदर्शन ८ अप्पहियं कायव्वं कमरे में जाने दे। वहाँ मैं व्रतों का त्याग कर दूँ। फिर जैसी तुम्हारी मरजी । पत्नी खुश हो गयी, महात्मा को उपर जाने दिया। बहुत देर हुई, पर वे वापस नहीं लौटे। तब पत्नी खुद उपर गयी। दरवाजा अंदर से बंद था। बहुत खिटखटाया। पर कोई प्रतिभाव नहीं मिला। खिडकी को धक्का देने पर खिडकी खुल गई। अंदर का दृश्य देखकर पत्नी चौंक उठी। छत के सलाखे के बल पर महात्मा का मृतदेह लटक रहा था। उन्होंने व्रतरक्षा भी हो सके एवं जिनशासन की हीलना भी न हो इसलिये फांसी लेकर अपने आपका बलिदान दे दिया था । ऐसी ही दुसरी भी घटना शास्त्र में आती है। जिसमें एक महात्मा विहारमार्ग में पत्नी के उपसर्ग से गृध्रपृष्ठ मरण का स्वीकार कर लेते है। जिस में वे अन्य मुर्दों के साथ जीवितरूप में सो जाते है। गीधों का भोजन बनते हुए अपने शरीर की पूर्ण उपेक्षा करते है, पर संयम को सुरक्षित कर देते है। इन दोनों महात्माओ को वैमानिक देवलोक की प्राप्ति हुई। इस जन्म के बाद केवल एक ही जन्म लेकर उन्हें शाश्वत सुखमय मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी । - यह दोनों घटनायें शास्त्र में आज भी मोजूद है। अनेक दृष्टिकोनों से इन घटनाओं को देखा जा सकता है। शास्त्रों के अनेक प्रतिपादन भी इन घटनाओं से जुड़े हुए है। हमें यह देखना है, कि दोनों घटनाओं में एक बात सामान्य थी - कि महात्माओं की पत्नीने दीक्षा नहीं ली थी। पत्नी को संसार में छोड़कर उन्होंने दीक्षा ली थी। और दोनो की पत्नीओंने उन्मार्ग का सेवन किया था। तथापि उन महात्माओं को कोई दोष नहीं लगा था। उनकी मोक्षयात्रा में कोई रुकावट नहीं आयी थी। अपने संयम के एवं व्रतपालन की दृढता के प्रभाव से उन्होंने अपने मोक्ष को अत्यंत समीप में ला दिया था। पत्नीओं की दशा के लिये, वे खुद ही जिम्मेदार थी। पति मर जाये तब भी उन्मार्ग में जाने वाली नारीयां होती है। पति जीवित हो एवं संसार में ही हो, तब भी उन्मार्गगामिनी महिलायें होती है। तो फिर संयमजीवन पर ही इसका दोषारोपण करना उचित नहीं है । अप्पहियं कायव्वं ९ संयमप्राप्ति के लिये शास्त्रीय मार्गदर्शन स्वकेन्द्रित स्थिति में ही आत्महित का संभव है। आखिर कोई कब तक दुसरों के पीछे लगे रहेगा ? अंत में मृत्यु के बाद तो वह संभव है ही नहीं, सभी बिछडनेवाले है। अपने अपने रास्ते पर जानेवाले है। अपने अपने कर्म भोगनेवाले है। आचारांग सूत्र कहता है - तुमं पिणालं तेसिं ताणा सर ते पि णालं तव ताणाए सरणाए वा तुम उन्हें बचा सकते हो, न वे तुम्हें बचा सकते है। न तुम उनकी शरण बन सकते हो, न वे तुम्हारी शरण बन सकते है। हमें चाहिये कि हम सबका कल्याण करे, पर जब वह संभव ही नहीं हो, तब हमारी दृष्टि केवल हमारी आत्मा पर ही होनी चाहिये । यदि हमारी दृष्टि आत्मा के उपर से हट गयी, तो समज़ लो की हम आत्महित से भ्रष्ट हो गये। हमने हमारे समस्त भवचक्र की सबसे बड़ी भूल कर दी । शास्त्र कहते है उत्तमा तत्त्वचिन्ता स्यान्, मध्यमं शास्त्रचिन्तनम् । अधमा कामचिन्ता च परचिन्ताऽधमाधमा ॥ उत्तम है तत्त्वचिंतन । मध्यम है तत्त्वकी प्राप्ति करानेवाले शास्त्र का चिंतन । कामभोग का चिंतन अधम है। और दुसरों के बारे में सोचना यह अधम से भी अधम है। - गुरुदेव की एक पुस्तक है आत्मचिंतन। इस गुजराती पुस्तक में केवल इस एक ही श्लोक की विस्तृत व्याख्या की गयी है। एवं यह सारी बात दिमाग में फीट हो जाये ऐसी विस्तृत कथा भी दी गयी है। तो बात यह है- परचिन्ताऽधमाधमा । आत्महित के अवसर पर दुसरों की चिन्ता करना यह बुरे से भी बुरी चीज़ है। यह आत्मवंचना है। अपने आप को संसार के कुए में डालने की कुचेष्टा है। आत्मार्थी व्यक्ति को कभी भी ऐसा नहीं करना चाहिये । हा, संयमार्थी को जिनाज्ञा के अनुसार उचित विधि जरूर करनी चाहिये।
SR No.034124
Book TitleAppahiyam Kayavvam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyam
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages18
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size3 MB
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