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________________ संयमप्राप्ति के लिये शास्त्रीय मार्गदर्शन ६ अप्पहियं कायव्वं पाप करने से भी कोई नुकशान नही होगा। किन्तु ऐसा तो नहीं है। पट्टरानी का ख्याल करके वे यदि संसार में ही बैठे रहते. तो पट्टरानी की नर्क तो नहीं मिटती, अपि तु उनकी खुद की भी नर्क निश्चित हो जाती। वास्तव में किसी की चिंता में आत्महित से भ्रष्ट होना यही सब से बडी मूर्खता है। संसार में घर-दुकान चलाने में कोई ऐसी मूर्खता नहीं करता। सारी दुनिया का जो होना हो सो हो, मेरा घर-दुकान अच्छी चलनी चाहिये, यही मानसिकता सबकी होती है। यदि सबकी सोचने जाये, तो घर-दुकान कुछ चलेगा ही नहीं। तो फिर अनंतकाल के बाद अति दुर्लभ आत्महित सामग्री को पाकर दुसरों की सोच में इस अवसर को गवा देना, इसमें कौन सी बुद्धिमत्ता है ? जिस सिद्धान्त को लेकर हम समग्र जीवनव्यवहार को चलाते है, उसी सिद्धान्त की आत्महित के सम्बन्ध में उपेक्षा करनी, और इतने उपर आकर भी, ईतना सब कुछ जानकर भी आत्महित से वंचित हो जाना, यह एक किसम की आत्महत्या ही नहीं है, तो और क्या है? यदि चक्रवर्ती ६४००० रानीयों की सोचने जाये, 'उनका क्या होगा?' - ऐसी चिन्ता करने जाये, तो वे कभी भी दीक्षा नहीं ले सकते । रानी की सोच में अपना बिगाडना उसमें जिनशासन की सम्मति नहीं है। जिनशासन कहता है अप्पहियं कायव्वं, जई सक्का परहियं वि कायव्वं । अप्पहियं - परहियाणं, अप्पहियं चेव कायव्वं - महानिशीथसूत्रम् ॥ आत्महित करना चाहिये । यदि संभव हो तो परहित भी करना चाहिये । आत्महित और परहित - इन दोनों में से एक का ही संभव हो, तो आत्महित ही करना चाहिये। एकाग्रता से देखे इस बात को । दुसरों का हित करने के लिये भी आत्महित की उपेक्षा करना - यह जिनशासन को मान्य नहीं है। तो फिर जिससे परहित भी नहीं है, उसके लिये तो आत्महित की उपेक्षा कैसे मान्य हो सकती अप्पहियं कायव्वं ११ संयमप्राप्ति के लिये शास्त्रीय मार्गदर्शन पंथे। जिसका संक्षिप्त हिंदी अनुवाद है - श्रामण्य नवनीत । (प्राप्तिस्थान- शा. देवचंदजी छगनलालजी, सदर बजार, भीनमाल-३४३०२९, राजस्थान । संपादकमुनि जयानंद विजयजी) इस पुस्तक में तर्क एवं दृष्टांत के साथ प्रमाणित किया गया है कि सभी विधि करने के बाद जब कोई चारा ही ना रहे, तब बिना अनुमति भी संयमग्रहण करने में कोई दोष नहीं है, अपि तु लाभ ही है। पंचसूत्र (तृतीय सूत्र) तो यहा तक कहता है कि एस चाए अचाए, तत्तभावणाओ अचाए चेव चाए, मिच्छाभावणाओ यह त्याग भी तात्त्विक दृष्टि से अत्याग है, यत: उसमें सही दृष्टि है। अत्याग ही वास्तव में त्याग है, यतः उसमें मिथ्यादृष्टि है। ___ संयम की सच्ची भावना वह है, जिसे दुनिया की कोई भी शक्ति रोक न पाये। जिसे बांधा जा सकता है, वह राग है। वैराग्य को कभी भी बांधा नहीं जा सकता । पानी कहीं से भी अपना रास्ता निकाल लेता है। पानी को रोकना मुमकिन नहीं है। ठीक उसी तरह वैराग्य भी संयमप्राप्ति का रास्ता निकाल ही लेता है। जो रुक जाये वो वैराग्य नहीं। हा, अपवाद तो इसमें भी हो सकता है। जैसे की आजीवन बेले के पारणे आयंबिल करने पर भी, प्रबल वैराग्य होने पर भी, संयमप्राप्ति की अदम्य इच्छा होने पर भी शिवकुमार को संयम नहीं मिला था । पर ऐसे अपवाद अत्यंत कम होते है। ज्यादातर लोग तो अपने मोह का दोष निकाचित कर्मों के सिर पर डालकर अपने आप को कल्याणवंचित करते होते है। शिवकुमार ने किस तरह इतना कठिन कर्म बांधा था, उसका भी वर्णन शास्त्र में है। एवं संयमप्राप्ति के लिये उन्होंने जो कडा पुरुषार्थ किया, वह भी किस तरह सफल रहा वह भी बात शास्त्र में आती है। शिवकुमार ही आगामी भव में जम्बूस्वामी बनते है। पूर्वभव के कडे पुरुषार्थ से उनका रास्ता ईतना सरल हो जाता है कि शादी के दुसरे ही दिन उन्हें संयम की प्राप्ति हो जाती है। वह भी नवविवाहिता पत्नीओं के साथ । अपने और उनके मातापिता के साथ । चोरी करने आये हुए पांच सो चोरों के साथ । उत्कृष्ट संयम, उत्कृष्ट ज्ञान एवं उत्कृष्ट दीक्षार्थी यदि मोहत्याग करके परम वैराग्य से संयमपथ पर चले, तो
SR No.034124
Book TitleAppahiyam Kayavvam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyam
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages18
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size3 MB
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