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________________ संयमप्राप्ति के लिये शास्त्रीय मार्गदर्शन ४ अप्पहियं कायव्वं श्रेयस्कर नहीं है। एवं संसार एक जलता हुआ घर है, इसमें कोई भी संशय नहीं है। जलते हुए घर में जैसे ही एक व्यक्ति जगेगी वैसे ही वह अपने परिवार को भी जगायेगी, एवं सब को वहा से बाहर निकालने का प्रयास भी करेगी। पर यदि बहुत प्रयास करने के बाद भी परिवार न ही जगे. या जगने के बावजूद भी बाहर निकलना नहीं चाहे, तो कम से कम उस व्यक्ति को तो शीघ्र से शीघ्र बाहर निकलना ही चाहिये । परिवार के साथ जल मरने में तो कोई समजदारी नहीं है। परिवार का दायित्व सांसारिक अवस्था में ही होता है। संयमप्राप्ति एक किसम का सिविल डेथ है, जिस में वह व्यक्ति संसार के लिये मर जाता है। एक आदमी को ऐसी परिस्थिति का निर्माण हआ था, कि यदि वे मर जाये, तो ही उनके परिवार को उनकी संपत्ति मिल सके। उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल की राय ली थी। सरदारने उनसे कहा था कि वे संन्यास ले ले। कानून की दृष्टि से संन्यास लेना एक सिविल डेथ माना गया है। यदि एक दीक्षार्थी पूर्णतया जिनशासन कथित विधि पूर्वक दीक्षित होता है, और पुत्रमोह की बजह से यदि उसके माता-पिता की मृत्यू भी हो जाती है, तो उस दीक्षित को लेश भी प्रायश्चित्त नही आता । यदि आता होता, तो कौन दीक्षा ले सकता? भावि की किसको क्यां खबर होती है? इस तरह तो सारा का सारा मोक्ष मार्ग ही बंद हो जायेगा । ठीक इसी तरह पति या पत्नी के विधिपूर्वक दीक्षा लेने के बाद यदि शेष पात्र उन्मार्ग का सेवन करता है, तो उसका दोष केवल उसके ही सिर पर है, न कि दीक्षित के सिर पर। हा, दीक्षार्थी का प्रयास तो सपरिवार दीक्षा लेने का ही होना चाहिये । पर यदि दुसरा पात्र सज्ज ही न हो, तो उसके भावि संभवित दोष की बजह से स्वयं संसार में बैठे रहना वह लेश भी उचित नहीं है। इस तरह तो नाना प्रकार के कारण - जो सभी के सांसारिक जीवन में होते ही है, उससे कोई दीक्षा ही नही ले पायेगा, एवं संपूर्ण मोक्षमार्ग का ही उच्छेद हो जायेगा। किन्तु ऐसा तो नहीं है, अनादि काल से मोक्षमार्ग अविच्छिन्न रूप से अप्पहियं कायव्वं १३ संयमप्राप्ति के लिये शास्त्रीय मार्गदर्शन रहती है। एक सच्ची इच्छा हज़ारों प्रतिकूल संयोगों को भारी पड जाती है। एक सच्ची इच्छा पूरे के पूरे वातावरण को अनुकूल बना देने के लिये समर्थ होती है। संयम की अभिलाषा में भी चारित्र मोहनीय को चूर चूर कर देने का सामर्थ्य होता है, तो संयमप्राप्ति के पुरुषार्थ की तो क्याँ बात करनी? यह एक ऐसी धारा है, जिसका प्रत्येक बिन्दु चारित्र मोहनीय कर्म के समंदर को पी जाने की क्षमता रखता है। आवश्यकता है ऐसी पुरुषार्थधारा की । उसके लिये भी सच्ची इच्छा की। दीक्षार्थी किसे कहते है? दीक्षाया अर्थी दीक्षार्थी । जिसे दीक्षा की बेहद जरुरत हो उसे दीक्षार्थी कहते है। लगा तो तीर नहीं तो तुक्का, उसे दीक्षार्थी नहीं कहते है। दीक्षा जिसके लिये जीवन हो, ओर संसार जिसके लिये मौत हो, उसे दीक्षार्थी कहते है । एक प्यासा - पानी के लिये तरस रहापानी के बिना मर रहा आदमी जिस तरह पानी को चाहे उसी तरह जो संयम को चाहे वह दीक्षार्थी है। दीक्षार्थी की दीक्षाप्राप्ति के प्रयास करने में क्यां कमी हो सकती है? कहा भी है - मरता क्यों नहीं करता? वह सब कुछ करेगा। हर उपाय को अजमायेगा । जिनाज्ञानुसार स्टेप बाय स्टेप हर विधि का पालन करेगा। आखिर में अंतिम उपाय से भी संयम को प्राप्त करके रहेगा। पंचसूत्र में कहा है - धीरा एअदंसिणो आसण्णभव्वा जो धीर आत्मा है, वह कभी भी मोहाधीन नहीं होगी। वह कभी भी वर्तमान स्थिति को नहीं देखेगी पर फल को देखेगी - परिणाम को देखेगी। और जिनाज्ञा के अनुसार विधिपूर्वक संयम की प्राप्ति करेगी। ऐसी आत्मा की मुक्ति समीप में होती है। दुसरे शब्दों में - जिस आत्मा की मुक्ति समीप में होती है, वह आत्मा ही ऐसा पुरुषार्थ कर सकती है। जिन्हें अभी भी बहुत भवभ्रमण करना बाकी होता है, वह आत्मा प्रमाद वश होकर मोह के कीचड में पड़ी रहती है।
SR No.034124
Book TitleAppahiyam Kayavvam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyam
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages18
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size3 MB
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