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________________ भूमिका ८३ के पांच प्राधार हैं । ब्रह्मचर्य इन्हीं में से एक है। ये पांचों अविभाज्य हैं तथा परस्पर सम्बन्धित और अन्योन्याधित हैं । यदि उनमें से एक का भङ्ग किया जाता है तो पांचों का भङ्ग हो जाता है। ऐसा होने से यदि में किसी को प्रसन्न करने के लिए ब्रह्मचर्य की साधना में फिसलूं तो में ब्रह्मचर्य को ही जोखिम में नहीं डालता पर सत्य, अहिंसा और सब महाव्रतों को भी जोखिम में डालता है। में दूसरे व्रतों के सम्बन्ध में व्यवहार और सिद्धान्त में कोई अन्तर नहीं लाने देता। यदि में केवल ब्रह्मचर्य के विषय में ही ऐसा करूं तो क्या इससे मैं ब्रह्मचर्य की धार को मन्द नहीं करूंगा ? सत्य की मेरी साधना को दूषित नहीं करूंगा? जब से मैं नोग्राखाली में पाया हूं, मैं अपने से यह प्रश्न पूछता रहा हूं, कि वह कौन-सी बात है, जो मेरी अहिंसा को कार्यकारी होने से रोक रही है। यह मंत्र काम क्यों नहीं कर रहा है ? कहीं मैंने ब्रह्मचर्य के बारे में तो गलती नहीं की कि जिसका यह परिणाम हो।" बापा बोले-"आपकी अहिंसा असफल नहीं है। विचार करें यदि आप यहाँ नहीं पाते तो नोपाखाली के भाग्य में क्या बदा होता ? दुनिया ब्रह्मचर्य के बारे में उस रूप में नहीं सोचती, जिस रूप में आप सोच रहे हैं।" गान्धीजी बोले-'यदि मैं आपकी बात को मान लूँ तो उसका अर्थ यह हुमा कि दुनिया को नाराज करने के भय से मैं उस बात को छोड़ दूं, जिसे मैं ठीक समझता हूं। अगर मैं अपने जीवन में इस तरह से आगे बढ़ता तो न मालूम मैं कहाँ होता ? मैं अपने को किसी गडढे के तले में पाता । बापा ! आप इसका कोई अनुमान नहीं लगा सकते, पर मैं इसका दृश्य अपने लिए प्रोक सकता हूं। मैंने अपने वर्तमान साहसपूर्ण कार्य को यज्ञ-तप कहा है। इसका अर्थ है-परम आत्म-शुद्धि। ऐसी प्रात्म-शुद्धि कसे हो सकती है, यदि मैं अपने मन में एक बात रक्खू और उसे खुल्लम-खुल्ला व्यवहार में लाने की हिम्मत नहीं कर सकूँ ? क्या उस बात के करने के लिए भी, जिसे व्यक्ति अपने हृदय से कर्तव्य समझता है, किसी की सलाह या स्वीकृति की आवश्यकता रहती है ? ऐसी परिस्थिति में मित्रों के लिए दो ही मार्ग खुले हैं या तो वे मेरे उद्देश्य की पवित्रता में विश्वास रखें, फिर भले ही वे मेरे विचारों को समझने में असमर्थ हों या उनसे असहमत हों, अथवा वे मुझसे ही हट जायं । बीच का कोई रास्ता नहीं। उस हालत में जब कि मैं एक यज्ञ में उतरा हूं जिसका अर्थ है सत्य का पूर्ण प्रयोग, मैं उस बात का साहस नहीं कर सकता कि मेरे तर्क-सिद्ध विश्वासों को काम में परिणत न करूं। न यही उचित है कि मैं अान्तरिक विश्वासों को छिपाऊँ, या अपने तक ही रखू । यह तो मेरी मित्रों के प्रति अवफादारी होगी।.....मैं इस जांच से कैसे दूर भाग सकता हूँ? मैंने अपने मन को स्थिर कर लिया है। ईश्वर के एकाकी मार्ग पर, जिस पर कि मैं चल रहा हूं, मुझे किसी पार्थिव साथी की आवश्यकता नहीं। "हजारों हिन्दू-मुसलिम स्त्रियाँ मेरे पास पाती हैं। ये मेरे लिए अपनी मां, बहन और पुत्रियों की तरह हैं। यदि ऐसा अवसर प्रा जाय, जिससे आवश्यक हो जाग कि मैं उनके साथ अपनी शय्या का उपभोग करूं तो मुझे जरा भी हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए ? यदि मैं वैसा ब्रह्मचारी हूं, जैसा कि मेरा दावा है। यदि मैं इस परीक्षा से अलग होऊं, तो मैं अपने को डरपोक और धोखेबाज साबित करूंगा।" बापा-"और यदि आपका कोई अनुकरण करगे लगे तो?" गांधीजी : "यदि मेरे उदाहरण का कोई अंधानुकरण करे अथवा उसवा अनुचित फायदा उटाये, तो समाज उसे सहन नहीं करेगा और न उसे सहन करना ही चाहिए। पर यदि कोई सच्चा और इमानदारीपूर्ण प्रयत्न करता हो, तो समाज. को उसका स्वागत करना चाहिए और यह उसकी भलाई के लिए ही होगा। जैसे ही मेरी यह खोज पूर्ण होगी, मैं खुद ही उसका परिणाम सारी दुनिया के सामने रखुंगा।".... बापा-"कम-से-कम मैं तो आपमें कोई बुरी बात होने की कल्पना नहीं करता । पाखिर मनु तो आपकी पौत्री ही है। मैं यह स्वीकार करता हूं कि प्रारंभ में मेरे मन में कुछ विचार थे। मैं नम्रता के साथ अपनी शंका को आपके सामने जोर से रखने के लिए आया था। मैं समझ नहीं पाया था। आपके साथ आज जो बातचीत हुई, उसके बाद ही मैं गहराई से रामझ सका हूं कि आप जिस बात के करने के प्रयल में हैं, उसका अर्थ क्या है ?" गांधीजी बोले : "क्या इससे कोई वास्तविक अंतर पड़ता है ? कोई अन्तर नहीं पड़ता और न पड़ना चाहिए । पाप मनु और अन्य बालाओं में भेद करना चाहते हैं । मेरे मन में ऐसा भेद नहीं है । मेरे लिए तो सब पुत्रियाँ हैं।" ठक्कर बापा के साथ महात्मा गांधी की जो बातचीत हुई, उसके बाद मनु बहन गांधीजी के पास आकर बोली : "यद्यपि प्रारम्भ में. ठक्कर बापा को कार्य के प्रौचित्य के बारे में शंका थी। परन्तु अपने छह दिनों के निकट सम्पर्क और निरीक्षण से उनकी शंकाए पूर्णरूप से दूर हो गई १-Mahatma Gandhi-The Last Phase pp. 585-87 Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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