SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शील की नव वाड़. सन् १९३६ के उपयुक्त विश्लेषण में उन्होंने वही बात कही है जो १९२६ में चुम्बकरूप में इस प्रकार कही थी : ''ब्रह्मचर्य का अर्थ शारीरिक संयम-मात्र नहीं है, बल्कि उसका अर्थ है-सम्पूर्ण इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार और मन-वचन-कर्म से काम-वासना का त्याग'।" अंत में (सन् १९४७) में भी उन्होंने ब्रह्मचर्य की यही परिभाषा दी : "जो हमें ब्रह्म की तरफ ले जाय, वह ब्रह्मचर्य है। इसमें जननेन्द्रिय का संयम पा जाता है। वह संयम मन, वाणी और कर्म से होना चाहिए।" . इस तरह महात्मा गांधी का आदि, मध्य और अन्तिम चिन्तन एक ही रूप में बहता रहा। उन्होंने ग्राजीवन ऐसे ब्रह्मचर्य को ही प्रात्मसाक्षात्कार या ब्रह्म-प्राप्ति का सीधा और सच्चा रास्ता माना। - ब्रह्मचर्य की इस परिभाषा की कसौटी पर ही वे कहते रहे : (१) पुरुष स्त्री का, स्त्री पुरुष का भोग न करे, यही ब्रह्मचर्य है । भोग न करने का अर्थ इतना ही नहीं कि एक दूसरे को भोग की इच्या से स्पर्श न करे, बल्कि मन से इसका विचार भी न करे । इसका सपना भी न होना चाहिए। (२) ब्रह्मचर्य का अर्थ खाली दैहिक प्रात्म-संयम ही नहीं है।..."इसका मतलब है सभी इन्द्रियों पर पूर्ण नियमन । इस प्रकार प्रशुद्ध विचार भी ब्रह्मचर्य का भंग है और यही हाल क्रोध का है। (३) जो मनुष्य मनसे भी विकारी होता है, समझना चाहिए कि उसका ब्रह्मचर्य स्खलित हो गया। जो विचार में निर्विकार नहीं, वह पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं माना जा सकता । (४) अगर कोई मन से भोग करे और वाणी व स्थूल कर्म पर काबू रखे तो यह ब्रह्मचर्य में नहीं चलेगा। 'मन चंगा तो कठौती में गंगा'। मन पर काबू हो जाय, तो वाणी और कर्म का संयम बहुत प्रासान होता है। सच्चा पूर्ण ब्रह्मचारी कैसा होता है, इसपर भी उन्होंने कई बार लिखा । एक बार उन्होंने कहा- "बुढ़ापे में बुद्धि मन्द होने के बदले और तीक्ष्ण होनी चाहिए। हमारी स्थिति ऐसी होनी चाहिए कि इस देह में मिले हुए अनुभव हमारे और दूसरे के लिए लाभदायक हो सकें और जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसकी ऐसी स्थिति रहती भी है। उसे मृत्यु का भय नहीं रहता और मरते समय भी वह भगवान को नहीं भूलता और न वेकार ही हाय-हाय करता है। मरण-काल में उपद्रव भी उसे नहीं सताते और वह हंसते-हंसते यह देह छोड़कर मालिक को अपना हिसाब देने जाता है। जो इस तरह मरे, वही पुरुष और वही स्त्री है। " बाद में लिखा: "अल्पाहारी होते हुए भी ऐसा ब्रह्मचारी शारीरिक श्रम में किसी से कम नहीं रहेगा। मानसिक श्रम में उसे कम-से-कम थकान लगेगी। बुढ़ापे के सामान्य चिह्न ऐसे ब्रह्मचारी में देखने को नहीं मिलेंगे। जैसे पका हुआ पत्ता या फल वृक्ष की टहनी पर से सहज ही गिर पड़ता है, वैसे ही समय आने पर मनुष्य का शरीर सारी शक्तियां रखते हुए भी गिर जायेगा। ऐसे मनुष्य का शरीर समय बीतने पर देखने में भले ही क्षीण लगे, मगर उसकी बुद्धि का तो क्षय होने के बदले नित्य विकास ही होना चाहिए और उसका तेज भी बढ़ना चाहिए। ये चिह्न जिसमें देखने में नहीं पाते, उसके ब्रह्मचर्य में उतनी कमी समझनी चाहिए।" -- १-अनीति की राह पर पृ० ७२ २-ब्रह्मच (दू० भा०) पृ०५२ - ३-अनीति की राह पर पृ०७० ४-आरोग्य साधन पृ० ५६-५७ ५-ब्रह्मचर्य (प० भा०)पृ० १०२ ६-ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ०७ ७-वही पृ० ५२ ८-अनीति की राह पर पृ०६१ ६-आरोग्य की कुंजी पृ० ३५ Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy