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________________ शील की नव बाड़ दिया है पर यथार्थतः उसी ब्रह्मचर्य का सच्चा मूल्य और महत्व है, जिसका अन्य सद्गुणों की भाँति श्रद्धापूर्वक हर संकल्प से विकारों के साथ युद्ध करने के लिए पालन किया जाता है। उस संयम का महत्व ही गया, जहाँ पार की सम्भावना ही नहीं यह तो वही बात हुई कि कोई मनुष्य अधिक खाने के प्रलोभन से बचने के लिए किसी ऐसी दवा को से जिससे उसकी भूल ही कम हो जाय, या कोई युद्धप्रिय आदमी अपने को लड़ाई में भाग लेने से बचाने के लिए अपने हाथ पैर बंधवा ले; श्रथवा गाली देने की बुरी प्रादतवाला अपनी जबान को ही इस खयाल से काट डालें कि उसके मुंह से गाली निकलने ही न पावे । परमात्मा ने मनुष्य को ठीक वैसा ही पैदा किया है जैसे कि वह यथार्थ में हैं। उसने उसकी मरणाधीन काया में प्राणों को इसलिए प्रतिष्ठित किया है कि वह शारीरिक विकारों को अपने अधीन कर के रखे। यही संघर्ष तो मानव-जीवन का रहस्य है। यह शरीर उसे इसलिए नहीं मिला है कि ईश्वरप्रदत कार्य के लिए स्वयं को या दूसरे को विकलांग बना दे। "मनुष्य पूर्ण बनने के लिए बनाया गया है। "ऐ मनुष्य, अपने स्वगथ पिता के समान पूर्ण बन ।" इस पूर्णता को प्राप्त करने की कुंजी ब्रह्मचर्य है। केवल शारीरिक ब्रह्मचर्य नहीं, बल्कि मानसिक भी विषय-वासना का सम्पूर्ण प्रभाव । - - धर्माचरण कल्याणप्रद होता है (ईसा ने कहा है मेरा जुम्रा और बोझ हलका है) और हर प्रकार की हिंसा की निन्दा करता है। यदि वह श्राघात या कष्ट दूसरे को पहुँचाता हो, तब तो पाप ही है। पर खुद अपने ऊपर भी ऐसा अत्याचार करना नियमों का भङ्ग करना है। " विवाहित जीवन में भी ईसा ने संयम पर ज्यादा से ज्यादा जोर दिया है। मनुष्य के केवल एक ही पत्नी होनी चाहिए। इस पर शिष्यों ने शंका की (पद्य १०) कि यह संयम तो बड़ा मुश्किल है; एक ही पत्नी से काम चलना तो नितान्त कठिन है। इस पर ईसा ने कहा कि यद्यपि मनुष्य जन्मजात अथवा मनुष्यों के द्वारा बनाये गये नपुंसक पुरुष की भाँति विषय-भोग से अलग नहीं रह सकते, तथापि कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने उस स्वर्गराज्य की अभिलाषा से अपने को नपुंसक बना लिया है, अर्थात् आत्मबल से विकारों को जीत लिया धर्म है कि वह इनका अनुकरण करे। 'स्वर्गीय राज्य की अभिलाषा से अपने को नपुंसक बना लिया ।' इन शब्दों का अर्थ की विजय करना' होना चाहिए न कि जननेन्द्रिय को मिटा देना ? है "केवल श्रात्मा ही जीवन देनेवाली है । ऐच्छिक रूप से या जबरन मनुष्य को विकलांग कर देना धर्म की आत्मा के बिल्कुल विपरीत और प्रत्येक मनुष्य का 'शरीर पर श्रात्मा है। " वासना शरीर का धर्म तो है नहीं। यह तो एक मानसिक वस्तु है। वैषयिकता से बचने के लिए विचार-शुद्धि परमावश्यक है । प्रलोभनों के सामने धाने पर जो विकारोद्भव होता है, धन्तर्युद्ध ही उसका उपाय है। 2112 इन्द्रिय-विनाश करना तो उसी सिपाही का सा काम है, जो कहता है कि मैं लड़ाई पर जाऊंगा, पर सभी जब मुझे आप यकीन दिला दो कि निश्चय ही मेरी विजय होगी। ऐसा सिपाही सच्चे शत्रुम्रों से तो दूर ही दूर भागेगा, पर काल्पनिक शत्रुओंों से अलबत्ता लड़ेगा । वह कभी युद्ध कला सीख ही नहीं सकता। उसकी पराजय ही होगी ।" 15 शाताधर्मकथासूत्र में इन्द्रियों की स्वच्छन्दता और शब्दादिक विषयों में बासति के दुष्परिणाम बतलानेवाली दो कयाएं उपलब्ध है। पहली कथा कछुए की है । एक दिन सूर्यास्त हुए काफी समय हो चुका था। संध्या की वेला बीत चुकी थी, मनुष्यों का आवागमन बन्द हो चुका था, उस समय दो से बाहर निकल मांगतीर ग्रह के पास-पास माजीविका के लिए फिरने लगे। उस समय दो पापी सियार आहार के लिए वहाँ आये। सियारों को देख कछुनों ने अपने हाथ, पांव, ग्रीवा प्रादिश्रङ्गों को अपने शरीर में छिपा लिया और निश्चल, निस्पंद और चुपचाप हो स्थिर हो गये । सियार समीप पहुँच कछुओंों को चारों ओर से देखने लगे। उन्हें नखों से नोचने और दांतों से काटने की चेष्टा की पर उनके शरीर को जरा भी क्षति नहीं पहुँचा सके । चमड़ी छेदन करने में असमर्थ रहे। सियारों ने एक चाल चली। वे एकांत में जा निश्चल, निस्पंद हो ताक लगाने लगे। एक कछुए ने सोचा - सियारों को गये बहुत देर हो गई। वे बहुत दूर चले गये होंगे। उसने चारों श्रोर नजर डाले बिना ही अपना एक पैर बाहर निकाल दिया। सियार यह देख कर तेजी से पा नलों से उसके पैर को विदण कर दांतों से काट, मांस खा शोणित पिया। इसी तरह सियारों ने क्रमशः उसके अन्य पैर और अन्य में ग्रीवा को खा डाला। दूसरा कछुवा स्पिन्द पड़ा रहा। जब सियारों को गये बहुत देर हो गई तो उसने धीरे-धीरे अपनी प्रीवा बाहर निकाली सर्व दिशाओं का अच्छी तरह अवलोकन किया। सियारों को कहीं 1 प्रि १- स्त्री और पुरुष पृ० ५५-५६ से संक्षिप्त २- स्त्री और पुरुष पृ० ३६-४० Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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