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________________ शील की नय बाद ૪૯ डॉ० कडूगल इस बारे में जो थोड़ा स्पष्टीकरण करते हैं, यह विचारने जैसा है। उनका कहना है कि स्मी का स्वभाव अधिक भावनावश होता है। उसके लिए जो ममता या सहानुभूति बताई जाती है, उसका असर उस पर पुरुष की बनिस्बत ज्यादा होता है । इसलिए उसके प्रति जो दाक्षिष्य (Chivalry) बताया जाता है, उसकी प्रतिध्वनि उसके हृदय में उठे बिना नहीं रहती । ... अपने प्रति ममता या सहानुभूति बतानेवाले को सन्तुष्ट करने के लिए वह सब कुछ करने को तैयार हो जाती है । धूर्त पुरुष स्त्री के इस स्वभाव का लाभ उठाता है और उसे अपना शिकार बनाता है । "इसका यह मतलब नहीं कि स्त्रियां कभी पुरुष से ज्यादा विकारवश या धूर्त होतीं ही नही, और पुरुष उन्हें फंसाने के बजाय उसके जाल में कभी फंसता ही नहीं" " प ऐसी स्थिति में दोषोत्पत्ति से बचने का राजमार्ग क्या है, यह बताते हुए उन्होंने लिखा है "इसलिए राजमार्ग संकड़ों स्त्रियों के लिए निर्भयता से चलने का मार्ग तो यही है कि पर-पुरुष चाहे जितना सच्चा सादा मल शुद्ध और प्रादर्शवादी मालूम हो, तो भी उसके साथ एकान्त में न रहा जाय, उससे हंसी मजाक न किया जाय, विशेष प्रयोजन के बिना उका अंग स्पर्श न किया जाय या न होने दिया जाय, अर्थात् मर्यादा को लांघ कर उसके साथ बरताव न किया जाय । "लाखों मनुष्यों में कोई बिरले स्त्री-पुरुष ही ऐसे हो सकते हैं, जो मर्यादा के बन्धन में न रहते हुए भी पवित्र रहें। वे अपनी उमर हमेशा पांच वर्ष के बालक जितनी ही अनुभव करते हैं और दूसरे स्त्री-पुरुषों के लिए माता या पिता अथवा लड़की या लड़के के सिवा दूसरी दृष्टि को समझ ही नहीं सकते । ऐसी साध्वी स्त्री या साधु पुरुष पूजने लायक है। लेकिन जो कभी भी विकार का अनुभव कर चुके हैं, उन्हें तो भागवत का यह वचन सच मानकर ही चलना चाहिए : तत्सृष्टप्रसृष्टेषु कोऽभ्वखंडितधीः पुमान् । ऋषि नारायणमृते योषिन्मय्येह मायया ? - एक नारायण ऋषि को छोड़ कर ब्रह्मा, देव, दानव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि में से कोई एक भी ऐसा है जो सर्जन कार्य में स्त्रीरूपी माया से खंडित न हुआ हो ? "जो पुरुष को लागू होता है, वह स्त्री को भी लागू होता है।" चौथी बाड़ (ढाल ५) इन्द्रिय-दर्शन - परिहार 'पराङ्गद मादा' वह उसके बाढ़ में यह शिक्षा है कि ब्रह्मवारी नारी के एप को 'न निरखे' पर दृष्टि न डाले। हो सकता है सर्वत्र है। स्थान-स्थान और घर-घर में बिहार करनेवाला साधु उनके दर्शन से कैसे बच सकता है। इस नियम कामाचा से स्पष्ट हो जाता है। वह कहा गया है- "यह संभव नहीं कि घाँखों के सामने आए हुए रूप को कोई न देखे परतु निक्षु उसमें राय-द्वेष न करे।" स्वामीजी ने 'जोइये नहीं पर राग' (५.१), 'नजर मेरे ने निरखता है (५.४) बादि वाक्यों द्वारा स्पष्ट कर दिया है कि ब्रह्मवारी को रागपूर्वक, टकटकी लगा कर, नजर गड़ा कर स्त्री के रूप को नहीं देखना चाहिए। वह नारी के रूप में मोहित, मूच्छित, प्रासक्त न हो । बिना राव-भाव स्वियों का दर्शन होता है, यह ब्रह्मचारी के लिए दोषरूप नहीं माना गया है और ऐसा दर्शन इस बाढ़ का वर्ज्य नहीं है। इस बाड़ का प्रतिपाथ है 'वो वा चस्तु संदेशा ब्रह्मचारी स्त्रियों पर पशु न सावे उन पर ताक न लगाये। जो ब्रह्मचारी वि के रूप का लोभी होता है और उनके प्रति प्रेमभाव से ताका करता है, उसको भ्रष्ट होते देर नहीं लगती। रूप में ऐसे बारात मनुष्य लिए स्वामीजी ने 'शील' (५-१०) शब्द का प्रयोग किया है। १ - स्त्री-पुरुष मर्यादा पृ० ३६-४१ २ स्त्री-पुरुष मर्यादा ४२-४३ १ -आचाराङ्ग २११५ : नामविसयमागर्व रागदोसा जे सत्य ते मिक्यू परिव App 32.7.99 जय vg fabery Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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