SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शील की नव बाड़ १६-ब्रह्मचर्य स्वतंत्र सिद्धान्त है या उपसिद्धान्त । सा गांधीगी लिखते हैं-"पतंजलि भगवान के पांच महायतों में से....."चार तो सत्य में छिपे हुए हैं ।.... 'सव प्रत सत्यं के पालन में है निकाले जा सकते हैं। तो भी एक सबसे बड़े सिद्धान्त को समझने के लिए अनेक उप-सिद्धान्त जानने पड़ते हैं'।" "वास्तव में देखने के तो दूसरे सभी प्रत एक सत्य व्रत में से ही उत्पन्न होते हैं और उसके लिए उनका अस्तित्व है।" . उन्होंने अन्यत्र कहा है-"अहिंसा को हम साधन माने, सत्य को साध्य । ...'हम एक ही मंत्र जपें-जो सत्य है वही है। वही एक परमेश्वर है।..."उसके साक्षात्कार का एक ही मार्ग, एक ही साधन, अहिंसा है, उसे कभी न छोडगा ।" . उन्होंने फिर महा है-"अहिंसा के पालन को लें उसका पूरा पालन ब्रह्मचर्य के बिना असाध्य है ।""""अहिंसा व्रत का पालन करने वाले से वियाह नहीं बन सकता ; विवाह के बाहर के विकार की तो वात ही पया ?" इसी तरह "जिस मनुष्य ने सत्य को वरा है उसकी उपासना करता है, वह दूसरी किसी भी वस्तु की आराधना करे तो व्यभिचारी बन जाता है।" ... महात्मा गांधी के कहने के अनुसार "परम सत्य अकेला खड़ा रहता है । सत्य साध्य है, अहिंसा एक साधन है।" अन्य प्रत अहिंसा के रक्षक हैं और इसके द्वारा सत्य के गर्भ में रहते हैं। उनके कहने का तात्पर्य है-'सत्य की उपासना करो'- यही विशाल सिद्धांत है। इस सिद्धांत में से महिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह प्रतों की उत्पत्ति है। संत टॉलस्टॉय इस प्रश्न पर विचार करते हुए लिखते हैं : "ईसा ने कहा है-"अपने स्वर्गस्थ पिता के समान पूर्ण बन"-यह प्रादर्श है। "जिस प्रकार पथिक को रास्ता बताने के दो मार्ग होते हैं, उसी प्रकार सत्य की शोध करनेवाले के लिए भी नैतिक जीवन का मार्ग दिखानेयाले फेयल दो ही उपाय है । एक उपाय के द्वारा पथिक को उसके रास्ते में मिलनेवाले चिन्हों और निशानों की सूचना दी जाती है. जिनको देख कर वह अपना रास्ता ढूँढ़ता चला जाये, और दूसरे के द्वारा उसको अपने पासवाले दिशा-दर्शक कम्पास की भाषा में रास्ता समझाया जाता है। नैतिक मार्ग-दर्शक पहले उपाय के अनुसार मनुष्य को बाहरी नियम बताते हैं । उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं, इसका साधारण शान दिया जाता है-मसलन सत्य का पालन कर, चोरी मत कर, किसी प्राणी की हत्या न कर, इत्यादि इत्यादि । धर्म के ये बाहरी नीतिनियम हैं और किसी-न-किसी रूप में ये प्रत्येक धर्म में पाये जाते हैं। "मनुष्य को नीति की ओर ले जाने का दूसरा उपाय वह है, जो उस पूर्णता की ओर इशारा करता है, जिसे प्रादमी कभी प्राप्त ही महीं कर सकता। हाँ, उसके 'हृदय' में यह प्राकक्षिा जरूर रहती है कि वह इस पूर्णता को प्राप्त करे । एक आदर्श बता दिया जाता है, उसको देख कर मनुष्य अपनी कमजोरी या अपूर्णता का अन्दाज लगा सकता है और उसे दूर करने का प्रयत्न करता रहता है। "बाह्य नियमों का जो मनुष्य पालन करता है, वह उस मनुष्य के समान है, जो खम्भे पर लगी हुई लालटेन के प्रकाश में खड़ा हो। वह । प्रकाश में खड़ा है, प्रकाश उसके चारों ओर है, पर उसके आगे बढ़ने के लिए मार्ग नहीं है । उपदेशों पर जिसका विश्वास है, वह उस मनुष्य के । समान है, जिसके प्रागे-मागे लालटेन चलती है । प्रकाश हमेशा उसके सामने ही रहता है और उसे बराबर अपना अनुसरण करते हुये आगे बढ़ते । जाने की प्रेरणा करता रहता है। वह बराबर नये-नये दृश्यों को आकर्षित करता रहता है।...एक सीढ़ी पर चढ़ते ही दूसरी पर पैर रखने की .१ ब्रह्मचर्य (दूसरा भाग) पृ०५३: RA P E २–प्रह्मचर्य (श्री०) पृ०४ ३-सप्त महायत अहिंसा पृ०८ ४-ब्रह्मचर्य (श्री०) पृ० ४. ५-ग्रह्मचर्य (श्री०) पृ०४ ६.--सप्त महायत पृ०१६-२० Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy