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________________ २०. शील की नव बाड़ (परिवह) का परिवर्जन करो' और महिंसा, सत्य, मचौर्य-अस्तेय, ब्रह्म और अपरिग्रह---इन पांच महायतों को ग्रहण करो।" संक्षेप में यही जिनउपदिष्ट धर्म है। इस धर्म को कठिन-दुष्कर कहा है, पर उपदेश भी इसी को ग्रहण कर धैर्यपूर्वक पालन करने का दिया है। हिंसा मादि पांचों पाप भौर अहिंसा मादि पांचों धर्मों का प्रति सूक्ष्म गंभीर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण जैनों के प्रश्नव्याकरण सूत्र में मिलता है। प्राचाराङ्ग सूत्र भी इनका सूक्ष्म प्रतिपादन करता है। कहा जा सकता है कि सारा जैन वाङ्गमय इन्हीं की भिन्न-भिन्न रूप से चर्चा का विस्तृत भण्डार है। 20 ऋग्वेद में 'सत्य' और 'ब्रह्मचर्य' शब्द प्राप्त हैं । शतपथ ब्राह्मण में सत्य बोलने का कहा गया है और ब्रह्मचर्य का भी उल्लेख है । पर पांचों यामों में से अन्य यामों के नाम इनमें ही नहीं अन्य वेद और ब्राह्मण ग्रन्थों में भी नहीं मिलते । सारेयामों का उल्लेख और उन पर विशद व्याख्या या विवेचन किसी वेद अथवा ब्राह्मण ग्रन्थ में नहीं देखा जाता । महाव्रत शब्द भी वहाँ नहीं है। छांदोग्य उपनिषद् में सत्य के साथ अहिंसा का उल्लेख मिलता है। वृहद् प्रारण्यक उपनिषद् में दया शब्द प्राप्त है। ब्रह्मचर्य का भी उल्लेख है। पर उपनिषदों में से किसी में भी अन्य यामों का उल्लेख नहीं और न उनके स्वरूप का सूक्ष्म प्रतिपादन है। याम या महाव्रत शब्दों का उल्लेख वहाँ भी नहीं। का स्मृतियों में जिन्हें साधारण या सामान्य धर्म कहा गया है, उनका उल्लेख वेद, ब्राह्मण या उपनिषदों में नहीं है । अतः साधारण धर्मों की कल्पना भी उपनिषद्-काल के बाद की ही कही जा सकती है। ... स्मृतियों में भी पांच याम या महाव्रतों का उल्लेख नहीं पर साधारण धर्मों के भिन्न-भिन्न प्रतिपादनों में ही अहिंसा, सत्य, अचौर्य और ब्रह्मचर्य का उल्लेख उपलब्ध है । गौतम धर्मशास्त्र में दया, शान्ति, अनसूया, शौच, अनायास, मङ्गल, अकार्पण्य और अस्पृहा-इन पाठ को आत्म-गुण कहा है । अस्पृहा को अपरिग्रह कहा जाय तो उस धर्म का यह पहला उल्लेख है। यह निश्चय है कि ऐसे साधारण उल्लेखों के उपरांत अहिंसा आदि तत्वों या धर्म-सिद्धान्तों का सूक्ष्म विवेचन या प्रतिपादन वैदिक संस्कृति के प्राचीन धर्म-ग्रन्थों में नहीं है। मनुष्य सत्य क्यों बोले, अहिंसा से दूर क्यों रहे-ऐसे प्रश्नों का निचोड़ उनमें नहीं मिलता। ___ यहाँ प्रश्न उठता है कि जिन याम आदि धर्मों का उल्लेख वेद-उपदिषदों में नहीं, वे बाद के साहित्य में कहाँ से आये। इसका उत्तर संक्षेप में इतना ही दिया जा सकता है कि संस्कृतियां एक दूसरे के प्रभाव से सर्वथा अछूती नहीं रह पातीं। श्रमण-संस्कृति का अचूक प्रभाव वैदिक संस्कृति पर भी पड़ा है और उसके चिन्तन में श्रमण-संस्कृति के अत्यन्त महत्वपूर्ण अंशों ने भी स्थान प्राप्त किया है और बाद में अपने ढंग का उनका विस्तार हुमा है। आधुनिक विचारकों में महात्मा गांधी ने व्रतों पर गंभीर विवेचन दिया है और वह विवेचन जैन आगमिक वर्णन से काफी मिलता-जलता है। दोनों को समानता पहले एक लेख में दिखाई जा चुकी है। "जिन पांच महाव्रतों का ऊपर उल्लेख पाया है उनके ग्रहण करने की शब्दावली इस रूप में मिलती है : १-मैं प्रथम महाव्रत में सर्व प्राणातिपात का त्याग करता हूँ। मैं यावज्जीवन के लिए सूक्ष्म या बादर, स्थावर या जंगम-किसी भी प्राणी की मन, वचन और काया से स्वयं हिंसा नहीं करूंगा, दूसरे से हिसा नहीं कराऊंगा और न हिंसा करनेवाले का अनुमोदन करूंगा। मैं अतीत के उस पाप से निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूं और अपने आपको व्युत्सर्ग करता-उससे हटाता हूँ। १-उत्तराध्ययन ३५.३: तहेव हिंसं अलियं चोज्ज अबम्भसेवणं । इच्छाकामं च लोभं च संजओ परिवज्जए॥ २-वही २१.१२ : अहिससच्चं च अतेणगं च । तत्तो य बम्भं अपरिग्गहं च। पडिवज्जिया पंच महन्वयाणि चरिन्ज धम्मं जिणदेसियं विदू ॥ ३-विवरण पत्रिका, वर्ष ८ अंक पृ० २५० से : 'गांधी और गांधीवाद' Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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