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________________ “१८ शील की नव वाड़ ८-व्रत-ग्रहण में विवेक आवश्यक कभी-कभी मनुष्य वस्तु की दुष्करता पर पूरा विचार नहीं करता और व्रत-ग्रहण कर लेता है। फल यह होता है कि या तो वह उसे मङ्ग कर दूर हो जाता है अथवा छिपे-छिपे अनाचार का सेवन करने लगता है। ज्ञानियों ने कहा है जो बात जैसी हो वसी जान कर व्रत-ग्रहण करो। पागम में कहा है-'कामभोग के रस को जान चुका उसके लिए प्रब्रह्मचर्य से विरति और यावज्जीवन के लिए उग्र महाव्रत ब्रह्मचर्य का धारण करना अत्यन्त दुष्कर है", "संयम बालू के कवल की तरह निरस है२", "जैसे वायु से थैला भरना कठिन है, उसी प्रकार क्लीव के लिए 'संयम का पालन कठिन है", "जिस तरह भुजाओं से रत्नाकर समुद्र का तैरना दुष्कर है, उसी तरह अनुपात प्रात्मा द्वारा दमरूपी समुद्र का तरना दुष्कर है", "जैसे लोहे के यवों का चबाना दुष्कर है, उसी प्रकार संयम का पालन दुष्कर है", "जिस तरह प्रज्वलित अग्नि-शिखा का पीना अत्यन्त दुष्कर है, उसी प्रकार तरुणावस्था में श्रामण्य का पालन दुष्कर है", "जो सुख में रहा है, सुकुमार है, ऐशोपाराम में पला है, वह श्रामण्य के पालन में समर्थ नहीं होता."। इन कथनों का अर्थ यह है कि व्रत-ग्रहण के पूर्व उसकी दुष्करता को पूर्ण रूप से समझ कर आगे कदम बढ़ाया जाय। - इसी तरह पागम में कहा है-'साधक ! अपने वल, स्थाम, श्रद्धा, आरोग्य को देख कर तथा क्षेत्र और काल को जान कर उसके अनुसार प्रात्मा को धर्म-कर्म में नियोजित करे।" इस का अर्थ यह कि वस्तु की दुष्करता के अनुपात से उसके बल, स्याम, श्रद्धा आदि कितने समर्थ हैं, यह भी देख लें। सार यह है कि जो वस्तु की दुष्करता को समझ तथा अपने बल सामध्यं के अनुसार आगे कदम बढ़ाता है, वह स्खलित या अनाचारी नहीं होता । जो ऐसा नहीं करता उसकी क्या गति होती है, उसका भी बड़ा गम्भीर विवेचन पागमों में है-“कायर मनुष्य जब तक विजयी पुरुष को नहीं देखता तब तक अपने को शूर मानता है, परन्तु वास्तविक संग्राम के समय वह उसी तरह क्षोभ को प्राप्त होता है जिस तरह युद्ध में प्रवृत्त दृढ़धर्मी महारथी कृष्ण को देख कर शिशुपाल हुपा था।" "अपने को शूर माननेवाला पुरुष संग्राम के अग्र-भाग में चला तो जाता है परन्तु जब युद्ध छिड़ जाता है और ऐसी घबड़ाहट मचती है कि माता भी अपनी गोद से गिरते हुए पुत्र की सुध न ले सके, तब शत्रुनों के प्रहार से -- क्षतविक्षत अल्प पराक्रमी पुरुष दीन बन जाता है'.'' "ब्रह्मचर्य पालन में हारे हुए मंदमति पुरुष उसी तरह विपाद का अनुभव करते हैं, जिस तरह जाल में फंसी हुई मछली " "जैसे युद्ध के समय कायर पुरुष यह शंका करता है कि कौन जानता है किस की विजय होगी, A m ethy- . १-उतराध्ययन १६ : २६. २-वही १६ : ३८ ३-वही १६:४१ ४-वही १६ : ४३ . . -वही १६ : ३५ ८-दशवकालिक ८.३५ : बलं थामं च पेहाए सद्धामारोगमप्पणो। खेतं कालं च विन्नाय तहप्पाणं निजंजए se ६-सूत्रकृताङ्ग १,३-१ : १ x antarmussian REAT vyani ११-वही १,३-१: १३ a rney insp i r ation Agentinations.org Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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