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________________ कथा-२४. राजकुमार अरणक [इसका संवन्ध दाल ५ गाथा १४ (पृ० ३१ ) के साथ है ] को एक समय भगवान् प्रामानुग्राम विचरण करते हुए किसी बड़े नगर में पहुंचे। भगवान् का आगमन सुनकर नगर की जनता उनकी वाणी सुनने के लिये उद्यान में पहुंची। वहां का राजा अपनी रानी व राजकुमार अरणक को लेकर भगवान् के समवशरण में पहुंचा। भगवान ने महती सभा में उपदेश दिया। उनका उपदेश सुनकर राजा व राजकुमार अरणक के हृदय में वैराग्य उत्पन्न हो गया और उन्होंने समस्त राज्य का परित्याग कर भगवान् के पास दीक्षा ले ली। पिता-पुत्र ने स्थिवरों की सेवा में रहकर सूत्रों का अध्ययन किया। अब भगवान् की आज्ञा से पिता-पुत्र स्वतंत्र रूप से विहार करते हुए संयम की आराधना करने लगे। पिता अपने छोटे लाडले पुत्र अरणक को कभी भी भिक्षा के लिए बाहर नहीं भेजता था। वह स्वतः गोचरी लाकर बालमनि की सेवा किया करता था। उसे किसी भी बात का कष्ट न हो, इसका वह पूरा-पूरा ध्यान रखता था। कुछ समय पश्चात् अरणक मुनि के पिता का स्वर्गवास हो गया और वे अब अकेले हो गये। अब तक तो पिता की छत्र-छाया में उन्हें किसी भी प्रकार के कष्ट का भान नहीं हुआ था, लेकिन अब उन्हें कड़कड़ाती धूप में आहार के लिये नंगे पैर जाना पड़ता था। __एक दिन वे तेज धूप में आहार के लिए निकले। पैर जल रहे थे। लू जोरों से चल रही थी। सूर्य की किरणें आग उगल रही थीं। साधु अरणक धूप से घबरा गया और विश्राम के लिए एक भव्य प्रसाद की छाया में खड़ा हो गया। प्यास के कारण गला सूख रहा था। उस प्रासाद की खिड़की में एक यवा स्त्री बैठी थी। उसके अंग-अंग से यौवन व मादकता फूट रही थी। उसका पति परदेश गया हुआ था। इसलिए वह काम-बाण से पीड़ित थी। अरणक मुनि की अलौकिक सुन्दरता को देख कर वह मुग्ध हो गई। उसने दासी के द्वारा मुनि को अपने महल में बुला लिया और हावभाव व नयन-कटाक्षों से मुनि को अपने वश में कर लिया। मुनि उसी सुन्दरी के यहां रहने लगे। - अरणक मुनि ग्रहस्थ बन गया और उसके साथ सुखोपभोग करते हुए जीवन-यापन करने लगा। इधर साधओं में अरणक की खोज होने लगी। लेकिन उसका कहीं भी पता न लगा। अरणक के गायब होने की खबर उसकी माता तक पहुंची। माता घबड़ा गई और अपने पुत्र की खोज के लिए निकल पड़ी। वह गाँव-गाँव की धूल छानने लगी। जगहजगह पछती फिरती कि कहीं किसी ने उसके प्यारे पुत्र को देखा है क्या? बुढ़ापे के कारण शरीर शिथिल हो रहा था। आँखों से कम दिखाई देता था, फिर भी दिल में उत्साह था कि कहीं मिल जायगा। अगाध मातृ-स्नेह के कारण वह पागल सी हो चली थी। 'अरणक' 'अरणक' पुकारती वह एक विशाल-भवन के नीचे धूप से घबड़ा कर खड़ी हो गई। ऊपर खिडकी में अरणक अपनी प्रेयसी से बातें कर रहा था। 'अरणक' 'अरणक' की आवाज अचानक उसके कानों में पड़ी। आवाज चिरपरिचित सी मालूम दे रही थी। उसने नीचे की ओर झांक कर देखा तो आश्चर्य चकित हो गया। वह आवाज और किसी की न होकर उसकी माता की ही थी। उसे अचानक महल के नीचे देखकर वह बाहर आया और स्नेह से उसके चरणों में गिर पड़ा। पुत्र को देखकर माता के हर्ष का कोई ठिकाना न रहा। स्नेह से उसने पुत्र के मस्तिष्क पर हाथ फेरते हुए कहा-"बेटा ! तू यहाँ कैसे आ पहुंचा ?" यों कहते-कहते उस वृद्धा की आँखों से आंसू बहने लगे। धरणक घबड़ा उठा। वह सोचने लगा "माता के प्रश्नों का क्या उत्तर दिया जाय ?" चेहरे का रंग उड़ गया। दिल गुनहगार की तरह छटपटाने लगा। अन्त में उसने लड़खड़ाती हुई आवाज में कहा-"मां ! अपराध हुआ।" अरणक Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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