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________________ शील की नव बाड़ दूसरी ओर इस नर-संहारकारी महा भयंकर यद्ध को देखकर मल्लि ने अपने पिता से विनती की-"मेरे लिए एक खूखार लड़ाई को बढ़ाने की जरूरत नहीं है। अगर आप एक बार इन सब राजाओं को मेरे पास आने दें तो में उन्हें समझा कर निश्चय ही शान्ति स्थापित करवा दूं।" राजा कुंभ ने अपने दूतों के द्वारा मल्लि का सन्देश राजाओं के पास भेज दिया। यह सन्देश मिलते ही राजाओं ने संतुष्ट होकर अपनी-अपनी सेनाओं को रण-क्षेत्र से हटा लिया। उनके आने पर, जिस कमरे में मल्लि की सुवर्ण मूर्ति अवस्थित थी, उसीमें उनको अलग-अलग बैठाया गया। राजाओं ने इस मूर्ति को ही साक्षात् मल्लि समझा और उसके सौंदर्य को देखकर और भी अधिक मोहित हो गए। बाद में वस्त्राभूपणों से सुसज्जित होकर राजकुमारी मल्लि जब उस कमरे में आई, तभी उनको होश हुआ कि यह मल्लि नहीं परन्तु उसकी मूर्ति मात्र है। वहाँ आकर राजकुमारी मल्लि ने बैठने के पहले मूर्ति के ढक्कन को हटा दिया। ढकन दूर करते ही मूर्ति के भीतर से निकलती हुई तीन दुर्गन्ध से समस्त कमरा एकदम भर गया। राजा लोग घबड़ा उठे और सब ने अपनी-अपनी नाक बन्द कर ली। राजाओं को ऐसा करते देख मल्लि नम्र भाव से बोली- हे राजाओ। तुम लोगों ने अपनी नाकै क्यों बन्द कर ली? जिस मूर्ति के सौंदर्य को देखकर तुम मुग्ध हो गये थे उसी मूर्ति में से यह दुर्गन्ध निकल रही है। यह मेरा सुन्दर दिखाई देनेवाला शरीर भी इसी तरह लोही, रुधिर, थूक, मूत्र और विष्टा आदि घृणोत्पादक वस्तुओं से भरा पड़ा है। शरीर में जानेवाली अच्छी से अच्छो सुगन्धवाली और स्वादिष्ट वस्तुएँ भी दुर्गन्धयुक्त विष्टा बन कर बाहर निकलती हैं। तब फिर इस दुर्गन्ध से भरे हुए और विष्टा के भाण्डार-रूप इस शरीर के बाह्य सौंदर्य पर कौन विवेकी पुरुष मुग्ध होगा" मल्लि की मार्मिक बातों को सुनकर सब के सब राजा लज्जित हुए और अधोगति के मार्ग से बचानेवाली मल्लि का आभार मानते हुए कहने लगे-हे देवानुप्रिये ! तू जो कहती है, वह बिलकुल ठीक है। हमलोग अपनी भूल के कारण अत्यन्त पछता रहे हैं।" - इसके बाद मल्लि ने फिर उनसे कहा :-“हे राजाओ ! मनुष्य के काम-सुख ऐसे दुर्गन्धयुक्त शरीर पर ही अवलम्बित हैं। शरीर का यह बाहरी सौंदर्य भी स्थायी नहीं है। जब यह शरीर जरा से अभिभूत होता है तब उसकी कांति बिगड़ जाती है, चमड़ी निस्तेज होकर ढीली पड़ जाती है, मुख से लार टपकने लगती है और सारा शरीर थर-थर कांपने लगता है। हे देवानुप्रियो! ऐसे शरीर से उत्पन्न होनेवाले काम-सुखों में कौन आसक्ति रखेगा और कौन उनमें मोहित होगा " “हे राजाओ ! मुझे ऐसे काम-सुखों में जरा भी आसक्ति नहीं है। इन सब सुखों को त्याग कर मैं दीक्षा लेना चाहती हैं। आजीवन ब्रह्मचारिणी रहकर, संयम पालन द्वारा, चित्त में रही हुई काम, क्रोध, मोह आदि असदवृत्तियों को निर्मूल करने का मैंने निश्चय कर लिया है। इस सम्बन्ध में तुमलोगों के क्या विचार हैं, सो मुझे बताओ ?" है. यह बात सुनकर राजाओं ने बहुत नम्र भाव से उत्तर दिया-हे देवानुप्रिये! तुम्हारा कहना ठीक है। हम लोग भी तुम्हारी ही तरह काम-सुख छोड़कर प्रव्रज्या लेने के लिए तैयार हैं।".... मल्लि ने उनके विचारों की सराहना की और उन्हें एकबार अपनी-अपनी राजधानी में जाकर अपने-अपने पुत्रों को राज्यभार सौंपकर तथा दीक्षा के लिए उनकी अनुमति लेकर वापस आने के लिए कहा। - यह निश्चय हो जाने पर मल्लि सब राजाओं को लेकर अपने पिता के पास आई। वहां पर सब राजाओं ने अपने अपराध के लिए कुम्भ राजा से क्षमा मांगी। कुम्भ राजा ने भी उनका यथेष्ट सत्कार किया और सबको अपनी अपनी राजधानी की ओर बिदा किया। Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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